Thursday, 4 September 2025

सच का स्वाद: कड़वा, मीठा, या फिर मौन?...


हममें से हर किसी ने बचपन में यह सीख ज़रूर सुनी होगी, "हमेशा सच बोलो।" यह एक ऐसा नैतिक पाठ है जो हमारे चरित्र की नींव रखता है। पर क्या इसका मतलब यह है कि हमें हर परिस्थिति में, हर किसी के सामने, और हर एक सच को उजागर कर देना चाहिए? क्या सच बोलना और हर सच को बोलना एक ही बात है? अगर आप इस सवाल पर थोड़ा गहराई से सोचेंगे, तो आपको पता चलेगा कि यह दो बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। सच बोलना तो एक सद्गुण है, लेकिन हर सच को बोल देना एक सद्बुद्धि की परीक्षा है।

ज़िंदगी एक रंगमंच है, और हम सब इस पर अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं। कभी हम बेटे-बेटी हैं, कभी माता-पिता, कभी दोस्त, कभी सहकर्मी। हर रिश्ते की अपनी मर्यादा होती है, अपनी ज़रूरतें होती हैं। सच की अहमियत को समझने के लिए हमें इस बात को एक कहानी से समझना चाहिए।
एक गांव में एक संत रहते थे। वे इतने ज्ञानी थे कि उनके पास हर सवाल का जवाब होता था। लोग उनसे अपनी समस्याएं लेकर आते और वे बिना किसी लाग-लपेट के सच बता देते। एक दिन, एक आदमी उनके पास आया और बोला, "बाबा, मेरी पत्नी बहुत मोटी हो गई है। वह मुझसे पूछती है कि क्या वह मोटी लगती है, मैं क्या कहूं?" संत ने जवाब दिया, "सच कहो, कि हां, तुम मोटी हो गई हो।" आदमी ने वही किया। उसकी पत्नी बहुत दुखी हुई, और दोनों के बीच कई दिनों तक झगड़ा चलता रहा।
कुछ दिनों बाद, एक और आदमी उनके पास आया। वह बहुत परेशान था क्योंकि उसकी बहन की शादी तय हो चुकी थी और रिश्ता बहुत अच्छा था, लेकिन उसे पता चला था कि लड़के के परिवार में कुछ छोटी-मोटी परेशानियां हैं। उसने संत से पूछा, "क्या मैं लड़के वालों को सारी बात सच-सच बता दूं?" संत ने इस बार जवाब दिया, "सच बोलने का एक तरीका होता है। तुम पूरी बात बता सकते हो, पर जिस तरह से तुम बात करोगे, वह महत्वपूर्ण है। अगर तुम यह बात इस तरह बताओगे कि तुम रिश्ता तोड़ना चाहते हो, तो यह सच भी झगड़े का कारण बनेगा। अगर तुम इसे सुलझाने के लिए बताओगे, तो शायद यह सच रिश्ता मजबूत कर दे।"
इन दोनों कहानियों में एक ही सीख छिपी है: सच बोलना महत्वपूर्ण है, लेकिन सच को किस तरह, कब और कितना बोला जाए, यह और भी महत्वपूर्ण है। सच को बोल देना तलवार से वार करने जैसा है, जबकि सच को समझदारी से प्रस्तुत करना एक सर्जन के चाकू जैसा है। एक से घाव लगता है, दूसरे से जीवन बचता है।
सच बोलने के बजाय हर सच को उजागर करने के कुछ मज़ेदार और कुछ कड़वे परिणाम हो सकते हैं। एक दोस्त अपनी नई जैकेट पहनकर आपके पास आता है और पूछता है, "कैसी लग रही है?" आपको पता है कि वह जैकेट उस पर अच्छी नहीं लग रही। अगर आप कहेंगे, "यार, सच कहूं, तो यह जैकेट तुम्हारे ऊपर बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही।" तो आपका दोस्त निराश होगा। इसके बजाय, अगर आप यह कहें कि, "रंग तो अच्छा है, पर शायद कोई दूसरा स्टाइल तुम पर ज़्यादा जंचेगा," तो आप सच भी बोल रहे हैं और अपने दोस्त की भावनाओं को भी ठेस नहीं पहुंचा रहे।
यह एक ऐसा बारीक संतुलन है जिसे हम सब अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बनाए रखते हैं। हम अपने माता-पिता के सामने कुछ ऐसी बातें छिपाते हैं जिनसे उन्हें बेवजह चिंता हो सकती है। हम अपने दोस्तों की कुछ कमियों को नज़रअंदाज़ करते हैं ताकि उनकी हिम्मत न टूटे। हम अपने सहकर्मियों से कुछ ऐसी बातें नहीं करते जिनसे काम के माहौल में तनाव पैदा हो सकता है। यह सब झूठ नहीं है, बल्कि समझदारी, सहानुभूति और संबंधों की मर्यादा है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हमें हर बार झूठ बोलना चाहिए। कुछ सच ऐसे होते हैं जिन्हें कहना बहुत ज़रूरी होता है, भले ही वे कड़वे हों। किसी के गलत काम को उजागर करना, किसी को खतरे से आगाह करना, या फिर किसी को उस गलत रास्ते पर जाने से रोकना जिस पर वह है - ये वो सच हैं जिन्हें बोल देना ज़रूरी है। पर ऐसे सच को भी हम कैसे प्रस्तुत करते हैं, यह हमारी संवेदनशीलता को दर्शाता है।
सच बोलना हमारे ईमानदारी को दर्शाता है, लेकिन हर सच को न बोलना हमारे समझदारी को दर्शाता है। एक ईमानदार व्यक्ति हमेशा सच बोलता है, लेकिन एक समझदार व्यक्ति जानता है कि कब, कहाँ और कितना सच बोलना है। कभी-कभी मौन रहना भी एक तरह का सच है, एक ऐसा सच जो यह बताता है कि यह बात अभी कहने लायक नहीं है। मौन तब एक भाषा बन जाता है जब शब्दों से काम नहीं बनता।
अंत में, हम कह सकते हैं कि सच एक बहुत शक्तिशाली औज़ार है। इस औज़ार का इस्तेमाल बहुत सावधानी से करना चाहिए। यह हमारे हाथों में जादू भी पैदा कर सकता है और नुकसान भी पहुंचा सकता है। तो अगली बार जब आप किसी बात का सच बोलें, तो एक पल के लिए रुकें और सोचें कि क्या यह सच किसी को फायदा पहुंचाएगा या सिर्फ दर्द देगा। क्या यह सच सचमुच कहा जाना चाहिए, या इसे दिल में रखकर मुस्कुरा देना ही बेहतर है?
यह था मेरा विचार, इस विषय पर आपका क्या मानना है।

लेखक.
श्री प्रवीण कुमार पाठक जीविका BRLPS में प्रशिक्षण अधिकारी पद पर औरंगाबाद, बिहार में कार्यरत हैं। ग्रामीण विकास एवं महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में उनका योगदान एक कर्मयोगी की भावना से प्रेरित है—जहाँ कार्य केवल नौकरी नहीं, बल्कि समाज सेवा का एक सतत संकल्प है।

वे तीन प्रेरणादायक ब्लॉगों के लेखक हैं:  
- 🌿 ghumantubaba.blogsport.com – यात्रा, अनुभव और जीवन दर्शन पर आधारित  
- 📘 gayansesamadhan.blogsport.com – ज्ञान, समाधान और सामाजिक जागरूकता के लिए  
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