Sunday, 21 September 2025

आधी आबादी, पूरी ताकत: नारी सशक्तिकरण की नई परिभाषा...


                    अक्सर हमारे समाज में एक पुरानी सोच इतनी गहराई से बैठी हुई है कि उसे बदलना बहुत मुश्किल लगता है। यह सोच है कि महिलाएँ, विशेषकर मानसिक और बौद्धिक रूप से, पुरुषों से कमतर होती हैं। जब कोई लड़की या महिला प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने का मन बनाती है, तो कई बार अनजाने में ही सही, उसे कम आँका जाता है। परिवार के भीतर भी यह ख्याल बना रहता है कि "यह तो एक लड़की है, भला यह क्या कर पाएगी?" यह धारणा सिर्फ एक भ्रम है, और यह भ्रम उस सच्चाई को छिपा देता है कि एक महिला में भी वही शक्ति, वही बुद्धि और वही दृढ़ता होती है जो एक पुरुष में होती है। प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता केवल ज्ञान का खेल नहीं है, बल्कि यह मानसिक सहनशक्ति, धैर्य और दृढ़ निश्चय का भी खेल है, और इन गुणों में महिलाएँ किसी से कम नहीं हैं।

दुर्भाग्य से, हमारे समाज और परिवारों में अक्सर लड़कियों को वह माहौल और प्रोत्साहन नहीं मिल पाता, जो लड़कों को सहजता से मिल जाता है। एक लड़के की तैयारी के लिए पूरा परिवार एकजुट हो जाता है—उसे कोचिंग, किताबें और एकांत में पढ़ने की जगह दी जाती है। लेकिन एक लड़की के लिए, खासकर ग्रामीण और छोटे शहरों में, यह सब एक संघर्ष बन जाता है। उसे पढ़ाई के साथ-साथ घर के कामों में भी हाथ बँटाना पड़ता है, और उसके सपनों को अक्सर घरेलू जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा दिया जाता है। इस अनदेखी और उपेक्षा के कारण कई बार लड़कियों की भावनाएँ और मानसिक स्थिति कमजोर हो जाती है, और वे अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों के आँकड़े इस पुरानी सोच को सिरे से खारिज करते हैं। आज की लड़कियाँ न सिर्फ इन चुनौतियों का सामना कर रही हैं, बल्कि सफलता के नए कीर्तिमान भी स्थापित कर रही हैं। यदि हम हाल ही के यूपीएससी (UPSC) जैसे प्रतिष्ठित परीक्षाओं के परिणामों को देखें, तो यह स्पष्ट होता है कि लड़कियों ने टॉप रैंक हासिल करके यह साबित कर दिया है कि योग्यता और क्षमता का कोई लिंग नहीं होता। उनकी सफलताएँ केवल व्यक्तिगत जीत नहीं हैं, बल्कि यह समाज के लिए एक सशक्त संदेश है कि सही अवसर और प्रोत्साहन मिले तो महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर तक पहुँच सकती हैं।

सबसे बड़ी चुनौती तब सामने आती है जब एक लड़की की शादी हो जाती है और वह माँ बन जाती है। भारतीय समाज में यह धारणा बहुत प्रचलित है कि शादी के बाद एक महिला की दुनिया सिर्फ उसके घर, पति और बच्चों तक सीमित हो जाती है। ऐसे में, यदि कोई महिला अपने पुराने सपनों को फिर से जीने की कोशिश करे, तो उसे अक्सर और भी अधिक उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। लोग कहते हैं, "अब क्यों पढ़ना? तुम्हारा काम तो घर और बच्चे संभालना है।" यह सोच न सिर्फ महिलाओं के सपनों को कुचलती है, बल्कि उनकी क्षमताओं को भी नकारती है।

लेकिन हाल के वर्षों में कई ऐसी मिसालें सामने आई हैं, जिन्होंने इस धारणा को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया है। ऐसी कई महिलाएँ हैं जिन्होंने पढ़ाई छोड़े हुए पाँच साल हो गए थे और दो-तीन बच्चों की जिम्मेदारी भी थी, फिर भी उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने इन चुनौतियों को अपनी ताकत बनाया और अपनी लगन और समय प्रबंधन से कई कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता का परचम लहराया। उनकी कहानियाँ यह बताती हैं कि माँ बनना या शादी के बंधन में बँधना किसी भी महिला के सपनों के रास्ते में बाधा नहीं है, बल्कि यह उनकी सहनशीलता और दृढ़ संकल्प का प्रमाण है।

यह बदलाव सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं हो रहा, बल्कि अब सरकारों ने भी इस दिशा में ठोस कदम उठाए हैं। केंद्र और राज्य सरकारें महिलाओं के सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएँ चला रही हैं। हमारे बिहार राज्य ने इस दिशा में एक बेहतरीन और ऐतिहासिक कदम उठाया है, जहाँ सरकारी नौकरी में महिलाओं को 35% तक का आरक्षण दिया गया है। यह एक क्रांतिकारी कदम है, जो न सिर्फ महिलाओं को सरकारी नौकरी में एक निश्चित हिस्सेदारी सुनिश्चित करता है, बल्कि उन्हें एक बेहतर जीवन जीने और समाज के विकास में सक्रिय रूप से योगदान देने का अवसर भी देता है। आरक्षण जैसी नीतियाँ महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए जरूरी प्रोत्साहन देती हैं और यह संदेश देती हैं कि सरकार और समाज दोनों ही उनकी क्षमताओं में विश्वास करते हैं।

इस बदलाव के लिए केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि हर पुरुष को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। यह समय है जब हर पति, पिता, भाई और ससुर को यह समझना होगा कि जब घर की कोई बेटी या बहू प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने का मन बनाए, तो उसे हतोत्साहित करने के बजाय प्रोत्साहित किया जाए। उनका नैतिक और भावनात्मक समर्थन ही किसी भी महिला की सफलता की कुंजी बन सकता है। जब एक परिवार मिलकर अपनी महिला सदस्य के सपनों को अपना सपना मानकर उसका सहयोग करता है, तो उसके लिए कोई भी बाधा असंभव नहीं रह जाती।

समाज का वास्तविक विकास तभी संभव है जब उसकी आधी आबादी, यानी महिलाएँ, आर्थिक रूप से सशक्त और स्वतंत्र हों। एक पढ़ी-लिखी और सफल महिला न सिर्फ अपने परिवार का जीवन स्तर सुधारती है, बल्कि वह अपनी अगली पीढ़ी के लिए भी एक रोल मॉडल बनती है। वह अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा और संस्कार दे सकती है, जिससे एक मजबूत और प्रगतिशील समाज का निर्माण होता है। महिलाओं का योगदान सिर्फ घर चलाने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे बेहतर जीविकोपार्जन और राष्ट्र निर्माण में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
यह लेख केवल एक लेख नहीं है, बल्कि यह एक बदलाव की गूँज है। यह एक ऐसे समाज की कल्पना है, जहाँ हर लड़की को समान अवसर मिलेंगे, जहाँ उसकी काबिलियत को उसके लिंग से पहले रखा जाएगा, और जहाँ हर कोई उसके सपनों को पूरा करने में उसका साथ देगा। यह एक संदेश है कि जब हम महिला शक्ति को पहचान लेंगे और उन्हें पंख देंगे, तो वे न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए आसमान की ऊँचाइयाँ छू लेंगी।

 सवाल:
जिस तरह बिहार सरकार ने महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 35% आरक्षण देकर एक मिसाल कायम की है, आपके विचार में सरकारें और समाज प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही महिलाओं को किन अन्य तरीकों से मदद कर सकते हैं, ताकि वे बिना किसी सामाजिक दबाव के अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन कर सकें?


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