Saturday, 13 September 2025

बने रहो पगला, काम करेगा अगला: आधुनिक कार्यशैली का अनकहा सच और उसका मनोविज्ञान...

 "बने रहो पगला, काम करेगा अगला; कम करो या न करो, काम का ज़िक्र खूब करो।" यह सिर्फ एक कहावत नहीं, बल्कि आधुनिक वर्कप्लेस साइकोलॉजी और मानव व्यवहार का एक अनूठा मिश्रण है। आइए, इस पर एक विस्तृत और ज्ञानवर्धक लेख पढ़ते हैं।

भारतीय लोक-व्यवहार और कार्य संस्कृति में कुछ कहावतें ऐसी हैं जो गहरी मानवीय प्रवृत्तियों और समाज की कार्यप्रणाली को बहुत सरल शब्दों में बयाँ करती हैं। इनमें से एक बहुत ही प्रचलित और कुछ हद तक विवादास्पद कहावत है: "बने रहो पगला, काम करेगा अगला; कम करो या न करो, काम का ज़िक्र खूब करो।" यह कहावत ऊपरी तौर पर भले ही आलस्य या चालाकी को बढ़ावा देती प्रतीत हो, लेकिन इसके भीतर कार्यस्थल पर व्यक्तिगत ब्रांडिंग, धारणा प्रबंधन और ज़िम्मेदारी के बँटवारे का एक गहरा मनोविज्ञान छिपा है। आइए, इस कहावत के विभिन्न पहलुओं को रोचक और ज्ञानवर्धक तरीके से समझते हैं।

कहावत का शाब्दिक अर्थ और निहितार्थ

इस कहावत के दो मुख्य भाग हैं:

 * "बने रहो पगला, काम करेगा अगला": इसका सीधा अर्थ है कि आप अपनी अज्ञानता या भोलापन दर्शाते रहो, या किसी काम में सीधे तौर पर शामिल न हो, तो अक्सर दूसरा व्यक्ति उस काम को स्वयं ही कर देगा या उसकी ज़िम्मेदारी उठा लेगा। यहाँ 'पगला' शब्द किसी मूर्ख व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि ऐसे व्यक्ति के लिए इस्तेमाल होता है जो जानबूझकर किसी जटिलता से दूर रहता है।

 * "कम करो या न करो, काम का ज़िक्र खूब करो": यह भाग कहता है कि भले ही आप असल में कम काम करो या बिल्कुल न करो, लेकिन अपने काम का ढिंढोरा खूब पीटो, उसके बारे में बातें करो, ताकि लोगों की धारणा में आप बहुत व्यस्त और मेहनती बनो।
इन दोनों हिस्सों को मिलाकर, यह कहावत एक ऐसी कार्यनीति का सुझाव देती है जहाँ व्यक्ति प्रत्यक्ष श्रम से बचते हुए भी अपनी पहचान और स्थिति को बनाए रखता है।

कार्यस्थल पर "बने रहो पगला" का मनोविज्ञान..

यह हिस्सा एक गहरी मनोवैज्ञानिक सच्चाई को छूता है। जब कोई व्यक्ति किसी काम को करने में झिझक दिखाता है, अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करता है, या बस निष्क्रिय रहता है, तो अक्सर दो चीजें होती हैं:

 * ज़िम्मेदारी का स्थानांतरण (Responsibility Transfer): एक टीम सेटिंग में, जब कोई काम लटका रहता है, तो कोई न कोई दूसरा व्यक्ति उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी ले लेता है। यह या तो अपनी पहल पर होता है, या फिर टीम लीडर किसी और को वह काम सौंप देता है। 'पगला' बने रहने वाला व्यक्ति इस ज़िम्मेदारी से बच जाता है।

 * क्षमता की पूर्वधारणा (Assumption of Incapacity): यदि आप लगातार यह दिखाते हैं कि आप किसी विशेष कार्य के लिए सक्षम नहीं हैं या उसमें रुचि नहीं रखते हैं, तो समय के साथ लोग आपको उस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं मानेंगे। यह एक तरह से अपनी 'अक्षमता' का प्रभावी ढंग से विपणन (marketing) करना है।

यह मनोविज्ञान अक्सर उन लोगों द्वारा उपयोग किया जाता है जो 'पेरिडो प्रिन्सिपल' (Pareto Principle - 80/20 नियम) को मानते हैं, जहाँ वे कम से कम प्रयास में अधिकतम परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं, या उन लोगों द्वारा जो किसी विशेष कार्य से बचना चाहते हैं। हालाँकि, इसका दुरुपयोग करने से टीम में तनाव बढ़ सकता है और उत्पादकता प्रभावित हो सकती है।

"काम का ज़िक्र खूब करो" - व्यक्तिगत ब्रांडिंग और धारणा प्रबंधन
यह कहावत का दूसरा और शायद अधिक शक्तिशाली हिस्सा है, खासकर आधुनिक कॉर्पोरेट जगत में। आज के समय में, केवल काम करना ही पर्याप्त नहीं है; उसे दृश्यमान बनाना और उसके बारे में सही 'नैरिटिव' (narrative) बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
 * दृश्यता का महत्व (Importance of Visibility): आपने कितना भी अच्छा काम किया हो, अगर वह दूसरों की नज़र में नहीं आता, तो उसकी सराहना होने की संभावना कम होती है। अपने काम का उल्लेख करना—चाहे वह मीटिंग्स में हो, ईमेल अपडेट्स में हो, या अनौपचारिक बातचीत में हो—आपकी दृश्यता बढ़ाता है।
 * प्रयास की धारणा (Perception of Effort): अक्सर, लोग आपके द्वारा किए गए वास्तविक काम से ज़्यादा आपके द्वारा किए गए "प्रयास" को महत्व देते हैं। जब आप अपने काम की चुनौतियों, कठिनाइयों और उसे पूरा करने में लगे समय का ज़िक्र करते हैं, तो यह दूसरों की नज़र में आपके प्रयास की धारणा को बढ़ाता है, भले ही वास्तविक काम कम क्यों न हुआ हो।
 * प्रभाव निर्माण (Impression Management): यह हिस्सा सीधे तौर पर 'इंप्रेशन मैनेजमेंट' (Impression Management) से जुड़ा है। हम हमेशा दूसरों के सामने अपनी एक ख़ास छवि प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। काम का ज़िक्र खूब करना हमें एक 'व्यस्त', 'महत्वपूर्ण' और 'जिम्मेदार' व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। यह एक प्रकार की 'सेल्फ-प्रमोशन' (Self-Promotion) है।
 * आत्मविश्वास और मुखरता: जो व्यक्ति अपने काम का बखान करते हैं, वे अक्सर अधिक आत्मविश्वासी और मुखर माने जाते हैं। यह उनकी नेतृत्व क्षमता या टीम में उनकी भूमिका को मज़बूत कर सकता है।

सकारात्मक और नकारात्मक पहलू..

इस कहावत के दोनों पहलुओं के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं:
सकारात्मक पहलू:
 * कार्य का कुशल बँटवारा (Efficient Task Allocation): यदि 'पगला' बनने वाला व्यक्ति वास्तव में किसी कार्य में कमज़ोर है, तो ज़िम्मेदारी का किसी और सक्षम व्यक्ति पर जाना कार्य की गुणवत्ता सुधार सकता है।
 * आत्म-प्रचार का महत्व: अपने काम का उल्लेख करना ज़रूरी है ताकि आपकी उपलब्धियाँ पहचानी जा सकें। यह करियर की प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है।
 * सीमाएँ निर्धारित करना (Setting Boundaries): 'पगला' बनकर कुछ कामों से बचना, उन लोगों के लिए एक तरीका हो सकता है जो अत्यधिक कार्यभार से बचना चाहते हैं या अपनी ऊर्जा को अधिक महत्वपूर्ण कार्यों पर केंद्रित करना चाहते हैं।
नकारात्मक पहलू:
 * अविश्वास और कटुता (Distrust and Resentment): यदि यह रणनीति दूसरों की नज़र में आ जाती है, तो यह सहकर्मियों के बीच अविश्वास और कटुता पैदा कर सकती है।
 * अनुत्पादकता (Unproductivity): यदि हर कोई इस नीति का पालन करने लगे, तो टीम की कुल उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित होगी।
 * कौशल का अभाव (Lack of Skill Development): काम से बचने से व्यक्ति नए कौशल सीखने या अपनी क्षमताओं को विकसित करने का अवसर खो सकता है।
 * सतही पहचान (Superficial Reputation): केवल ज़िक्र करने से एक सतही पहचान बनती है, जो अंततः वास्तविक परिणामों के अभाव में टूट सकती है।

आधुनिक कार्य संस्कृति में प्रासंगिकता..

आज के कॉर्पोरेट जगत में, जहाँ मैट्रिक्स, रिपोर्ट्स और प्रेजेंटेशन का बोलबाला है, "कम करो या न करो, काम का ज़िक्र खूब करो" वाली बात कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हो जाती है। सोशल मीडिया और नेटवर्किंग के इस युग में, व्यक्तिगत ब्रांडिंग और अपनी उपलब्धियों को सही ढंग से प्रस्तुत करना करियर की सीढ़ी चढ़ने के लिए एक अनिवार्य कौशल बन गया है।

दूसरी ओर, 'बने रहो पगला, काम करेगा अगला' की नीति भी अप्रत्यक्ष रूप से कई संगठनों में देखी जा सकती है। जब टीमें बहुत बड़ी होती हैं या ज़िम्मेदारियाँ स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं होतीं, तो कुछ लोग चुपचाप पीछे हटकर दूसरों को काम करने देते हैं।

नैतिक दुविधा और संतुलन..

यह कहावत एक नैतिक दुविधा भी पैदा करती है। क्या हमें ऐसा करना चाहिए? आदर्श रूप से नहीं। एक स्वस्थ कार्य संस्कृति में पारदर्शिता, सहयोग और ईमानदारी का महत्व होता है। लेकिन यथार्थवादी रूप से, हमें स्वीकार करना होगा कि ऐसे व्यवहार हर जगह मौजूद हैं।
सही दृष्टिकोण संतुलन स्थापित करना है। काम ईमानदारी से करना चाहिए, लेकिन अपने काम को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करना भी आना चाहिए। अपनी सीमाओं को समझना और कुछ ज़िम्मेदारियों से चतुराई से बचना (जब वे वास्तव में आपके दायरे में न हों या आपके मुख्य लक्ष्यों से भटका रही हों) एक कौशल हो सकता है, बशर्ते यह टीम के सामूहिक हित को नुकसान न पहुँचाए।

निष्कर्ष..

"बने रहो पगला, काम करेगा अगला; कम करो या न करो, काम का ज़िक्र खूब करो" एक ऐसी कहावत है जो भारतीय समाज और कार्यस्थल के सूक्ष्म मनोविज्ञान को दर्शाती है। यह आलस्य और चालाकी का एक नुस्खा प्रतीत हो सकती है, लेकिन इसके मूल में धारणा प्रबंधन, ज़िम्मेदारी का स्थानांतरण और व्यक्तिगत ब्रांडिंग की गहरी समझ है। यह हमें सिखाती है कि केवल काम करना ही महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि उसे किस तरह से प्रस्तुत किया जाता है, यह भी मायने रखता है।
एक प्रभावी पेशेवर बनने के लिए, हमें ईमानदारी से काम करने और उसे प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने के बीच एक स्वस्थ संतुलन बनाना होगा। यह कहावत हमें मानव व्यवहार की जटिलताओं और कार्यस्थल की वास्तविकता पर सोचने के लिए मजबूर करती है, जहाँ कभी-कभी 'स्मार्ट' काम 'हार्ड' काम से ज़्यादा मायने रखता है।

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