कवि संत कबीरदास का यह अमर दोहा — "पोथी पढ़े चक मुआ पंडित भया न कोई, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई"—सदियों से हमें ज्ञान के सही अर्थ पर विचार करने के लिए प्रेरित करता रहा है। यह दोहा हमें किताबी ज्ञान की सीमा और प्रेम तथा व्यवहारिक सद्भाव के अपरिमित महत्व से परिचित कराता है। यह मात्र कविता नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक सीधा और रोचक दर्शन है।
ज्ञान की वास्तविक परिभाषा
कबीरदास जी कहते हैं कि बड़ी-बड़ी धार्मिक और सांसारिक पुस्तकें (पोथी) पढ़ते-पढ़ते तो पूरा संसार थककर मर गया, फिर भी कोई सच्चा पंडित यानी ज्ञानी नहीं बन पाया। उनका 'पंडित' शब्द यहाँ केवल डिग्रीधारी विद्वान के लिए नहीं, बल्कि आत्मज्ञानी और जीवन के सत्य को समझने वाले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है। पुस्तकीय ज्ञान हमें सूचनाएँ और तर्क दे सकता है, पर वह हमारे हृदय को छूकर हमें मनुष्यता नहीं सिखा सकता।
कबीर का मानना है कि यदि कोई व्यक्ति केवल "ढाई आखर प्रेम का" यानी प्रेम के दो-ढाई अक्षरों को ही सही मायने में पढ़ ले—अर्थात प्रेम के वास्तविक मर्म को समझकर उसे अपने आचरण में उतार ले—तो वही सच्चा ज्ञानी (पंडित) होता है। इस दोहे में प्रेम का अर्थ केवल व्यक्तिगत मोह नहीं है, बल्कि अहंकार-मुक्त, निस्वार्थ और सर्वव्यापी प्रेम, दया और सद्भाव से है, जो ईश्वर से लेकर संसार के हर जीव के प्रति हो।
किताबी ज्ञान बनाम व्यवहारिक प्रेम
आज के युग में, हम ज्ञान को डिग्री, सूचना और अकादमिक सफलता से जोड़कर देखते हैं। हम ज्ञान का संग्रह तो करते हैं, लेकिन उसे जीवन में लागू करने से चूक जाते हैं। यह दोहा हमें चेतावनी देता है कि ज्ञान का बोझ ढोने से कोई लाभ नहीं, यदि वह ज्ञान हमारे भीतर सहानुभूति और प्रेम पैदा न करे। यदि हमारे पास संसार का सारा ज्ञान हो, लेकिन हमारे व्यवहार में कठोरता, अहंकार और द्वेष भरा हो, तो वह ज्ञान व्यर्थ है।
सच्चा ज्ञान वह है जो हमें दूसरों के प्रति विनम्र बनाता है। प्रेम वह ढाई अक्षर है जो हमारे हृदय के ताले खोलता है। जब हम प्रेम को अपने जीवन का आधार बनाते हैं, तो हम हर किसी में ईश्वर का अंश देखने लगते हैं। प्रेम हमें सिखाता है कि हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, और किसी को दुःख पहुँचाना वास्तव में स्वयं को दुःख पहुँचाने जैसा है। प्रेम एक व्यवहारिक विज्ञान है, जिसे पढ़ने से नहीं, बल्कि आचरण में लाने से सीखा जाता है। जो व्यक्ति प्रेम के इस सरल सूत्र को अपना लेता है, उसके लिए संसार की सबसे कठिन समस्याएँ भी सहज हो जाती हैं।
निष्कर्ष
अतः, कबीर का यह दोहा हमें यह अमूल्य संदेश देता है कि जीवन की भागदौड़ में, ज्ञान और सूचना के ढेर में उलझने के बजाय हमें हृदय की शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। किताबें ज़रूरी हैं, पर उनसे अधिक ज़रूरी है मानवीय मूल्य। हमें पंडित बनने के लिए पोथियाँ कम, और अपने व्यवहार को अधिक पढ़ना होगा। प्रेम ही वह जादुई कुंजी है जो हमें सच्चा ज्ञानी, सच्चा मनुष्य और अंततः एक सफल जीवन प्रदान कर सकती है।
रोचक सवाल
कबीरदास जी ने प्रेम के ढाई अक्षरों को ही सच्चे ज्ञान का आधार क्यों माना, और इस प्रेम को अपने आचरण में लाने के बाद, आपकी नज़र में एक "सच्चे पंडित" के व्यवहार की सबसे मुख्य विशेषता क्या होगी?
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