Thursday, 16 October 2025

👑 लुप्त खजाने का संरक्षक: गोयन्काजी प्रख्यात आचार्य की कहानी...



यह कहानी लगभग 2500 साल पुरानी है, जब भगवान गौतम बुद्ध ने परम सत्य का साक्षात्कार किया। उन्होंने जो मार्ग दिखाया, वह था "जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देखना"—यानी विपश्यना। यह किसी पूजा-पाठ या कर्मकांड पर आधारित नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक विज्ञान पर आधारित था।

बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद, यह अनमोल खजाना भारत में धीरे-धीरे धुंधला होता गया, लेकिन सौभाग्य से, इसे निष्ठावान आचार्यों की एक अटूट श्रृंखला ने पड़ोसी देश म्यांमार (बर्मा) में शुद्धता के साथ, बिना किसी साम्प्रदायिक मिलावट के, सुरक्षित रखा। यह परंपरा ज्ञान का एक अदृश्य पुल थी।

🔥 पहला पात्र: सुख-शांति की तलाश में एक उद्योगपति

हमारा पहला नायक है श्री सत्य नारायण गोयन्काजी, जिनका जन्म और पालन-पोषण म्यांमार में हुआ। वह एक सफल उद्योगपति थे, जिनके पास भौतिक सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी। लेकिन, जैसा कि अक्सर होता है, भीतरी अशांति उन्हें सता रही थी। वह गंभीर माइग्रेन के दर्द से पीड़ित थे, जिसके लिए दुनिया के बड़े-बड़े डॉक्टर कोई स्थायी इलाज नहीं दे पा रहे थे।

गोयन्काजी ने सुख की तलाश में बहुत कुछ किया, लेकिन उन्हें लगा जैसे वह एक रेगिस्तान में मृग-मरीचिका का पीछा कर रहे हैं। उन्हें समझ आ गया था कि असली शांति कहीं बाहर से खरीदी नहीं जा सकती

यहीं पर कहानी में एक मोड़ आता है, जो उन्हें एक ऐसे व्यक्ति तक ले जाता है जिसके पास वह खोया हुआ 'अमृत' था।


💡 मुख्य रहस्योद्घाटन: श्री एस. एन. गोयन्काजी के गुरु

श्री गोयन्काजी को विपश्यना सिखाने वाले उनके प्रख्यात आचार्य का नाम था:

सयाजी ऊ बा खिन (Sayagyi U Ba Khin)

यह नाम एक साधारण साधु का नहीं था। यह कहानी का सबसे रोचक पहलू है!

🌟 दूसरा पात्र: सरकारी गलियारों में छिपा आत्मज्ञानी

सयाजी ऊ बा खिन कोई जंगल में रहने वाले संन्यासी नहीं थे। वह उस समय की बर्मा सरकार के महालेखाकार (Accountant General) के उच्च पद पर कार्यरत थे। कल्पना कीजिए, एक ऐसा व्यक्ति जो देश के वित्त का हिसाब रखता हो, वह अपने भीतर परम सत्य का हिसाब भी लगा चुका था!

यह तथ्य विपश्यना की सार्वजनीन प्रकृति (Universal Nature) को दर्शाता है: यह केवल जंगल या मठ में रहने वालों के लिए नहीं है, बल्कि एक व्यस्त गृहस्थ, एक जिम्मेदार नागरिक, और एक सरकारी अधिकारी भी इसे अपने जीवन में उतार सकता है।

सयाजी ऊ बा खिन की साधना और उनका आचरण ऐसा था कि उनकी उपस्थिति में ही अद्भुत शांति का अनुभव होता था। वह उस अखंड आचार्य परंपरा के अंतिम कड़ी थे, जिन्होंने बुद्ध के इस विज्ञान को निष्पक्ष और शुद्ध रूप में सुरक्षित रखा था।

🤝 गुरु-शिष्य का मिलन और 14 साल का कठोर तप

अपनी पीड़ा और अशांति से तंग आकर, श्री गोयन्काजी सयाजी ऊ बा खिन के पास पहुँचे। शुरू में, वह कुछ झिझके क्योंकि उन्हें लगा कि शायद यह कोई धार्मिक अनुष्ठान होगा, लेकिन सयाजी ऊ बा खिन ने उन्हें समझाया कि विपश्यना कोई बौद्ध धर्म नहीं है, बल्कि मन को शुद्ध करने का शुद्ध विज्ञान है, जो किसी भी जाति, धर्म या संप्रदाय के व्यक्ति के लिए है।

सयाजी ऊ बा खिन ने गोयन्काजी को वह 'आत्म-निरीक्षण' का मार्ग सिखाया, जहाँ साधक अपनी शारीरिक संवेदनाओं को समता (तटस्थता) के साथ देखता है। यह कोई आसान रास्ता नहीं था। गोयन्काजी ने अपने गुरु के चरणों में चौदह वर्षों (14 Years) तक गहन साधना की। यह चौदह साल का अभ्यास केवल शारीरिक बीमारी को ठीक करने के लिए नहीं था, बल्कि राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा) और अविद्या (अज्ञान) के मूल विकारों को चित्त से उखाड़ने के लिए था।


🚢 मिशन: 'धम्म' की वापसी (The Return of the Dhamma)

सयाजी ऊ बा खिन की यह दृढ़ मान्यता थी कि ज्ञान का यह खजाना, जिसे 2000 साल से अधिक समय तक म्यांमार ने सुरक्षित रखा था, अब अपने जन्मस्थान—भारत—में वापस जाना चाहिए।

जब गोयन्काजी ने अपनी साधना पूरी की और वह स्वयं भी शांति और करुणा के स्रोत बन गए, तो सयाजी ऊ बा खिन ने उन्हें एक ऐतिहासिक मिशन पर भेजा।

  • 1969 में, श्री एस. एन. गोयन्काजी अपने परिवार के साथ भारत लौट आए। वह व्यापारी के रूप में नहीं लौटे, बल्कि 'धम्म दूत' के रूप में लौटे, जिसके पास परम सुख की कुंजी थी।

🌳 एक छोटा बीज, एक विशाल वटवृक्ष

भारत लौटने के बाद, गोयन्काजी ने निःशुल्क दस-दिवसीय आवासी विपश्यना शिविरों का आयोजन शुरू किया। उनकी शिक्षा की सबसे बड़ी शक्ति यह थी कि उन्होंने इसे शुद्ध, गैर-सांप्रदायिक और वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया।

  • वैज्ञानिक सत्य: उन्होंने सिखाया कि कैसे सुखद संवेदनाओं से आसक्ति और दुखद संवेदनाओं से घृणा हमारे दुखों को जन्म देती है, और कैसे संवेदनाओं के प्रति प्रतिक्रिया न करने का अभ्यास हमें मुक्त करता है। यह एक प्रत्यक्ष सत्य था, जिसे हर कोई अपनी काया के भीतर अनुभव कर सकता था।

  • पवित्रता का आधार: उन्होंने सुनिश्चित किया कि यह शिक्षा कभी भी व्यापारीकरण का शिकार न हो। शिविर पूरी तरह निःशुल्क रखे गए और उनका संचालन स्वैच्छिक दान से होता था—एक ऐसा मॉडल जहाँ रहने, खाने और शिक्षा का खर्च उन पुराने साधकों के दान से चलता है जो पहले लाभान्वित हो चुके हैं। यह 'दीजिए ताकि दूसरे भी लें' (Give so others may take) का निस्वार्थ नियम था।

आज, विपश्यना दुनिया के 90 से अधिक देशों में फैल चुकी है, जिससे लाखों लोग लाभान्वित हो रहे हैं। यह सब एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी (सयाजी ऊ बा खिन) द्वारा दिए गए ज्ञान और एक समर्पित उद्योगपति (श्री एस. एन. गोयन्काजी) द्वारा किए गए कठोर परिश्रम का परिणाम है।

यह कहानी केवल ज्ञान के हस्तांतरण की नहीं है, बल्कि यह इस बात का सबूत है कि सच्ची शांति का खजाना हमारे भीतर ही छिपा है, और इसे पाने का मार्ग हमें हमारे गुरु ही दिखा सकते हैं।

No comments:

Post a Comment