Wednesday, 1 October 2025

आँवला नवमी: वह अनमोल त्योहार जो पिकनिक और अध्यात्म को साथ लाता था..


'प्रकृति की गोद में परिवार का मिलन—वह विरासत जो धूल फाँक रही है'

आज के दौर में, जब जीवन 'डिजिटल' और 'व्यक्तिगत' होता जा रहा है, हमें उन पुराने त्योहारों की याद आती है, जो परिवार और प्रकृति को एक धागे में पिरोते थे। आँवला नवमी या अक्षय नवमी ऐसा ही एक पर्व था, जो कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाया जाता था। यह केवल पूजा-पाठ का दिन नहीं, बल्कि एक ऐसा सामुदायिक आयोजन था, जिसे हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक एक सुंदर परंपरा के रूप में जीवित रखा।

पर्व का स्वरूप: अध्यात्म के साथ पिकनिक..

आँवला नवमी का सबसे ख़ास पहलू इसका अनूठा संयोजन था: अध्यात्म + सामूहिक भोज + प्रकृति वंदन।
आपके बचपन की यादों की तरह, 90 के दशक तक, यह पर्व घरों में नहीं, बल्कि सीधे प्रकृति की गोद में मनाया जाता था। महिलाएँ, जो इस पर्व की मुख्य सूत्रधार होती थीं, पूरे परिवार के साथ गाँव या शहर के पास किसी आँवले के पेड़ के नीचे इकट्ठा होती थीं।
 * स्थल पूजा: आंवला नवमी में आँवले के पेड़ की पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस दिन स्वयं भगवान विष्णु इस वृक्ष में निवास करते हैं। भक्त पेड़ की परिक्रमा करते हैं, कच्चा दूध, रोली, अक्षत, धूप-दीप और नैवेद्य चढ़ाते हैं, और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
 * सामुदायिक रसोई: इस पर्व का सबसे आकर्षक भाग—पेड़ के नीचे भोजन बनाना। घर से लाए गए चूल्हों या पत्थरों का उपयोग करके वहीं दाल, चावल, पूड़ियाँ और तरह-तरह की सब्ज़ियाँ बनती थीं। यह प्रक्रिया ही अपने आप में एक सामूहिक ऊर्जा और प्रेम का संचार करती थी।
 * कथा और भोग: पूजा-पाठ और कथा सुनने के बाद, वह भोजन जो आँवले के पेड़ की छाँव में तैयार हुआ, उसे पहले भगवान को भोग लगाया जाता था। इसके बाद, सभी परिवारजन, एक साथ बैठकर, प्रकृति की ताज़ी हवा में उस प्रसाद रूपी भोजन को ग्रहण करते थे।
यह प्रक्रिया एक तरह से 'आध्यात्मिक पिकनिक' थी—जो आज के 'वीकेंड गेटवे' से कहीं ज़्यादा गहरा और संतुष्टिदायक अनुभव देती थी।

सकारात्मक प्रभाव: परिवार, समाज और स्वास्थ्य..

यह पर्व केवल कर्मकांड नहीं था, बल्कि इसके पारिवारिक, सामाजिक और वैज्ञानिक लाभ भी थे:
1. पारिवारिक मेल-जोल (Inter-Generational Bonding)
 * आज के दौर में, जब परिवार सिमट गए हैं, यह पर्व संयुक्त परिवार के महत्व को बनाए रखता था। दादी से लेकर पोती तक, सभी महिलाएँ मिलकर भोजन बनाने, पूजा की तैयारी करने और कथा सुनाने में संलग्न होती थीं।
 * बच्चों को अपनी जड़ों से जुड़ने, सामूहिक श्रम का महत्व समझने और बड़ों के साथ समय बिताने का मौका मिलता था।
2. प्रकृति वंदन और वैज्ञानिक महत्व
 * पर्यावरण संरक्षण: यह पर्व हमें सिखाता था कि हमारे जीवन के लिए प्रकृति कितनी महत्वपूर्ण है। यह सीधे तौर पर वृक्ष पूजा और वनस्पति संरक्षण को बढ़ावा देता था।
 * आँवले का महत्व: कार्तिक मास की नवमी के आस-पास मौसम बदलने लगता है और आँवला (Indian Gooseberry), जो विटामिन-सी और एंटीऑक्सीडेंट्स का भंडार है, खाने के लिए सबसे उपयुक्त होता है। इस पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करना और इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करना, मौसम परिवर्तन के साथ शरीर को स्वस्थ रखने का प्राचीन तरीका था।
3. दान और सामाजिक समरसता
 * इस पर्व पर एक अनूठी परंपरा थी कूष्माण्ड दान की। कूष्माण्ड यानी पेठा बनाने वाली सब्ज़ी (सफेद कद्दू या पेठा फल) का दान करना। इस दान को अति शुभ माना जाता था।
 * ब्राह्मणों या ज़रूरतमंदों को फल, सब्ज़ी और अन्न का दान करना त्याग और निस्वार्थता की भावना को बढ़ावा देता था। यह समाज में समृद्धि का साझाकरण सुनिश्चित करता था।
पर्व क्यों हुआ विलुप्त? और इसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
वर्तमान शहरी जीवनशैली और भौतिकवादी भाग-दौड़ ने इस पर्व को लगभग हाशिए पर ला दिया है।
 * स्थान की कमी: शहरों में खुले आँवले के पेड़ के नीचे जाकर भोजन पकाना अब एक चुनौती है।
 * समय का अभाव: आधुनिक जीवन की व्यस्तता ने त्योहारों को 'फ़ास्ट-फूड' की तरह जल्दी निपटाने तक सीमित कर दिया है।
 * ज्ञान का अभाव: नई पीढ़ी को इस पर्व के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व की जानकारी नहीं है, इसलिए वे इसे केवल एक पुराना 'रिवाज' मानकर छोड़ रहे हैं।
पुनर्संरचना की आवश्यकता
आधुनिक समाज को इस पर्व को फिर से शुरू करने की अत्यंत आवश्यकता है, भले ही इसके रूप को थोड़ा बदला जाए:
 * Mini-Gatherings (छोटे समूह): बड़े समूहों के बजाय, अब परिवार या आस-पड़ोस के लोग मिलकर नज़दीक के पार्क या गार्डन में आँवले के पौधे के पास यह अनुष्ठान कर सकते हैं।
 * 'प्रसाद' पर ज़ोर: भोजन बनाने की पूरी प्रक्रिया संभव न हो, तो घर से स्वास्थ्यवर्धक भोजन ले जाकर, आँवले के पेड़ के पास बैठकर, सामूहिक रूप से ग्रहण किया जा सकता है।
 * आधुनिक दान: कूष्माण्ड दान को आधुनिक रूप देकर, स्वस्थ फल और सब्ज़ियाँ वृद्धाश्रमों या अनाथालयों में दान की जा सकती हैं।

आँवला नवमी हमें सिखाती है कि सच्चा अध्यात्म कठोर अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और परिवार के प्रति प्रेम में छिपा है। इस पर्व को पुनर्जीवित करके, हम न केवल एक सुंदर परंपरा को बचाएँगे, बल्कि अपनी नई पीढ़ी को भी सद्भाव, स्वास्थ्य और सादगी का अमूल्य पाठ पढ़ाएँगे।

क्या आप अपने क्षेत्र के किसी पार्क या मंदिर परिसर में इस पर्व को छोटे स्तर पर मनाने के बारे में सोच सकते हैं?

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