Wednesday, 1 October 2025

'मुफ्त' का मूल्य: क्यों 'कुछ' शुल्क ज़रूरी है - समाज, सेवा और सम्मान का संतुलन...


अक्सर हम एक विरोधाभास देखते हैं: जो चीज़ें हमें प्रकृति ने मुफ्त में दी हैं—जैसे हवा, पानी और सूर्य का प्रकाश—उनकी परवाह हम सबसे कम करते हैं। ठीक इसी तरह, मानव निर्मित व्यवस्था में भी जब कोई वस्तु या सेवा बिना किसी प्रयास, लागत या शुल्क के मिल जाती है, तो उसका मूल्य हमारी नज़रों में कम हो जाता है। यह एक गहरा मनोवैज्ञानिक सत्य है जिसे दार्शनिकों से लेकर आधुनिक अर्थशास्त्रियों तक ने स्वीकारा है: मुफ्त की चीज़ों को अक्सर बर्बादी का सामना करना पड़ता है।

यह धारणा केवल 'कद्र न करने' तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जिम्मेदारी, जागरूकता और जवाबदेही से भी जुड़ी हुई है। जब हम किसी चीज़ के लिए कुछ भी निवेश नहीं करते—चाहे वह पैसा हो, समय हो, या श्रम—तो हम उसे हल्के में लेते हैं। निवेश का अभाव स्वामित्व की भावना को कम करता है, और स्वामित्व की कमी रखरखाव और बेहतर परिणाम की प्रेरणा को मार देती है।

शिक्षा और सेवा क्षेत्र में मूल्य का अंतर..

इस सिद्धांत को सरकारी और निजी सेवाओं की तुलना से आसानी से समझा जा सकता है।
सार्वजनिक शिक्षा भारत में एक महान पहल है। सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा, किताबें, और कभी-कभी भोजन भी प्रदान किया जाता है। इसके पीछे उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। लेकिन, अक्सर देखा जाता है कि माता-पिता और छात्रों दोनों का ही फोकस और नियमितता निजी स्कूलों के मुक़ाबले कम होती है। चूँकि उन्हें कोई फीस नहीं देनी पड़ती, अभिभावक बच्चे की उपस्थिति और पढ़ाई की प्रगति पर उतनी गहरी निगरानी नहीं रखते। शिक्षक भी, जिनका वेतन सीधे किसी उपभोक्ता (छात्र) की फीस से नहीं जुड़ा होता, उनमें काम के प्रति व्यक्तिगत जवाबदेही की भावना थोड़ी कम हो सकती है।
इसके विपरीत, निजी स्कूलों में जब अभिभावक एक निश्चित फीस भरते हैं, तो यह फीस उनका निवेश बन जाती है। इस निवेश के कारण वे स्कूल और शिक्षक दोनों से बेहतर प्रदर्शन की अपेक्षा रखते हैं, और बच्चे की पढ़ाई पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। फीस का यह भुगतान एक अदृश्य अनुबंध स्थापित करता है जो सभी हितधारकों को अधिक जवाबदेह बनाता है।

'न्यूनतम योगदान' का मॉडल..

क्या इसका मतलब यह है कि गरीब लोगों के लिए मुफ्त सेवाएं बंद कर देनी चाहिए? बिल्कुल नहीं। समाधान शून्य लागत और पूर्ण लागत के बीच एक संतुलन स्थापित करने में निहित है, जिसे 'न्यूनतम योगदान' का मॉडल कहा जा सकता है।
यह मॉडल मानता है कि सहायता या सेवा मुफ्त हो सकती है, लेकिन उसका मूल्यबोध मुफ्त नहीं होना चाहिए। इसलिए, यह ज़रूरी है कि लाभार्थी से सांकेतिक रूप में ही सही, कुछ-न-कुछ योगदान लिया जाए। यह योगदान पैसा, समय, श्रम, या प्रतिबद्धता के रूप में हो सकता है।

इस मॉडल के कुछ बेहतरीन उदाहरण:

 * जीविका परियोजना में CBO कॉन्ट्रिब्यूशन: बिहार की जीविका परियोजना में, कैडर के मानदेय में एक हिस्सा सामुदायिक संगठन (CBO) के योगदान से आता है। जब समुदाय स्वयं पैसे का योगदान करता है, तो वह उस कैडर के काम की निगरानी अधिक गंभीरता से करता है, और सेवा की गुणवत्ता के प्रति जागरूक रहता है। यह तंत्र यह सुनिश्चित करता है कि समुदाय केवल लेने वाला नहीं, बल्कि हिस्सेदार भी है।

 * सरकारी चिकित्सालयों में नाममात्र का शुल्क: बिहार के सरकारी अस्पतालों में ₹2 से ₹5 तक का एक टोकन शुल्क लिया जाता है। यह शुल्क इतना कम है कि किसी गरीब व्यक्ति के लिए भी वहन करना मुश्किल नहीं होता, लेकिन यह एक मूल्यबोध स्थापित करता है। यह शुल्क यह एहसास दिलाता है कि यह सेवा 'मुफ्त' नहीं, बल्कि 'अति-सब्सिडीकृत' है, और इस पर संसाधन खर्च किए गए हैं।
क्यों 'कुछ' देना ज़रूरी है?

किसी भी सेवा के बदले में कुछ न कुछ (चाहे वह कम हो) लेने के पीछे कई महत्वपूर्ण कारण हैं:

 * जवाबदेही (Accountability): यह सेवा प्रदाता को उपभोक्ता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
 * मूल्यबोध (Perceived Value): यह लाभार्थी को सेवा के महत्व का एहसास कराता है।
 * ओनरशिप (Ownership): यह समुदाय में उस सेवा के प्रति स्वामित्व की भावना को जन्म देता है, जिससे वे उसका बेहतर उपयोग और रखरखाव करते हैं।
 * संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग (Judicious Use): जब मुफ्त होता है, तो लोग अक्सर जरूरत न होने पर भी लाभ लेने लगते हैं, जिससे संसाधनों की बर्बादी होती है। शुल्क एक फ़िल्टर का काम करता है।

निष्कर्ष:
किसी भी प्रकार की सहायता—चाहे वह तन से हो, मन से हो, या धन से हो—देते समय यह समझना आवश्यक है कि मनुष्य का मन बिना किसी निवेश के किसी चीज़ को गंभीरता से नहीं लेता है। असली दान या मदद वह है जो प्राप्तकर्ता को सशक्त बनाए, न कि उसे आलसी या उदासीन बनाए। इसलिए, जब भी कोई सेवा प्रदान की जाए, तो एक सस्ता, सांकेतिक शुल्क या श्रम/समय का योगदान लेना एक बुद्धिमानी भरी रणनीति है। यह सेवा को टिकाऊ बनाता है, लाभार्थियों में सम्मान पैदा करता है, और समाज के संसाधनों की बर्बादी को रोकता है।

सवाल:
क्या आपके अनुसार, सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सभी सेवाओं में एक नाममात्र का 'टोकन कॉन्ट्रिब्यूशन' अनिवार्य कर देना चाहिए, या कुछ मूलभूत सेवाएं (जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य और शिक्षा) पूरी तरह से मुफ्त ही रहनी चाहिए?

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