Tuesday, 14 October 2025

गृहस्थ में साधना: 'श्रेय' के मार्ग पर चलता हुआ घर का साधु...


मनुष्य जीवन एक यात्रा है, और इस यात्रा में दो मार्ग हमेशा हमारे सामने खुले रहते हैं—प्रेय (Pleasant/Immediate Gratification) और श्रेय (Auspicious/Ultimate Good)। प्रेय का मार्ग वह है जो तुरंत मीठा लगता है, इंद्रियों को सुख देता है, और क्षणिक आनंद प्रदान करता है। वहीं, श्रेय का मार्ग वह है जो भले ही कठिन, तपस्यापूर्ण और त्याग की मांग करने वाला लगे, लेकिन अंततः आत्मा की उन्नति, पवित्रता और मोक्ष की ओर ले जाता है।
भारतीय दर्शन, विशेषकर कठोपनिषद्, स्पष्ट करता है कि हर व्यक्ति को इन दोनों में से किसी एक को चुनना होता है। यह चुनाव ही तय करता है कि व्यक्ति संसार में रहकर भी 'साधु' बनता है या केवल 'भोगी'। यह एक मिथक है कि साधुता के लिए घर-परिवार त्यागकर जंगल या हिमालय जाना आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि हर मनुष्य अपने घर में रहते हुए साधु बन सकता है, यदि वह 'श्रेय' का मार्ग चुन ले।

गृहस्थ आश्रम: साधुता की सर्वोच्च कसौटी...
प्राचीन भारतीय आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि यह शेष तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास) का पोषण करता है। गृहस्थ जीवन 'साधुता' की सबसे कठिन और सच्ची कसौटी है।
जंगल में केवल स्वयं पर नियंत्रण करना होता है, लेकिन गृहस्थ में रहकर व्यक्ति को अनगिनत दायित्वों, रिश्तों और प्रलोभनों के बीच अपने मन को नियंत्रित करना होता है। जो व्यक्ति परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी अपने भीतर वैराग्य और निष्काम भाव को बनाए रखता है, वही सच्चा गृहस्थ साधु है।

श्रेय का मार्ग: गृहस्थ जीवन के आयाम...
गृहस्थी में श्रेय का मार्ग चुनना कोई जटिल धार्मिक कर्मकांड नहीं है, बल्कि जीवन जीने के तरीके में कुछ मौलिक परिवर्तन लाना है।
 * निष्काम कर्मयोग: भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है—"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" गृहस्थ साधु अपने सभी पारिवारिक और व्यावसायिक कर्तव्यों (कर्म) को निष्ठा से करता है, लेकिन उन कर्मों के फल (फल) में आसक्ति नहीं रखता। वह बच्चों को पालता है, कमाता है, समाज की सेवा करता है—परन्तु यह सब 'मेरा' नहीं, 'ईश्वर का कार्य' समझकर करता है। यही अनासक्ति उसे कर्मों के बंधन से मुक्त करती है।
 * कर्तव्यों में पवित्रता: गृहस्थ में हर दायित्व एक यज्ञ के समान है। पति-पत्नी, माता-पिता, संतान, और पड़ोसी के प्रति अपने कर्तव्यों को स्वार्थ रहित प्रेम और ईमानदारी से निभाना ही उसकी साधना है। एक साधु का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि होता है; गृहस्थ साधु अपने संबंधों में प्रेम, सत्य और त्याग के द्वारा उसी शुद्धि को प्राप्त करता है।
 * इंद्रियों पर विवेक का अंकुश: प्रेय का मार्ग तुरंत दिखने वाले सुखों (स्वादिष्ट भोजन, महँगे वस्त्र, मनोरंजन) की ओर खींचता है। गृहस्थ साधु इन भौतिक सुखों को पूरी तरह त्याग नहीं देता, बल्कि उनका 'भोगी' बनने के बजाय उनका 'उपभोक्ता' बनता है। वह विवेक और संयम के साथ उपभोग करता है, जिससे उसकी इंद्रियाँ उसकी गुलाम न बनें, बल्कि साधन बन कर रहें।
 * अतिथि देवो भवः: साधु का जीवन परोपकार और सेवा पर आधारित होता है। गृहस्थ साधु अपने घर आए अतिथि, जरूरतमंद पड़ोसी या किसी अजनबी को निःस्वार्थ भाव से सेवा देकर, अन्न जल देकर अपने 'संन्यास धर्म' का पालन करता है। उसका घर एक छोटा-सा आश्रम बन जाता है, जहाँ निस्वार्थ प्रेम का दीपक जलता है।
 * जप, ध्यान और स्वाध्याय: गृहस्थ के पास समय की कमी होती है, लेकिन वह साधु बनने के लिए बहाने नहीं बनाता। वह अपनी दिनचर्या में से कम-से-कम दस मिनट भी निकाल कर एकांत में प्रभु का नाम लेता है, ध्यान करता है या आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करता है। यह 'आंतरिक कुटीर' उसके मन को शांत और पवित्र बनाए रखती है।

श्रेय मार्ग का परिणाम: मोक्ष और आत्म-ज्ञान...
श्रेय के मार्ग पर चलने वाला गृहस्थ किसी भी क्षणिक सुख की चिंता नहीं करता। उसे पता होता है कि उसके इस कठिन चुनाव का अंतिम फल महान है—मोक्ष, आत्म-ज्ञान और परम शांति।
जब कोई गृहस्थ इन सिद्धांतों का पालन करता है, तो वह केवल एक पारिवारिक व्यक्ति नहीं रहता। उसके भीतर का 'राग' (आसक्ति) 'वैराग्य' में बदल जाता है। वह घर में रहता है, लेकिन घर उसके मन में नहीं रहता। उसका शरीर तो दुनिया के कर्मों में लीन रहता है, पर उसकी आत्मा प्रभु के चरणों में स्थित रहती है। इसी आंतरिक स्थिति के कारण उसे घर छोड़कर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
वास्तव में, गृहस्थ में रहकर श्रेय का मार्ग चुनना हिमालय पर तप करने से कम नहीं है। यह प्रेम, कर्तव्य और वैराग्य का एक अद्भुत संगम है, जो मनुष्य को संसार में रहते हुए भी संन्यासी के समान पद प्रदान करता है।

 सवाल:
यदि किसी गृहस्थ साधु को श्रेय के मार्ग पर चलते हुए एक बड़ी आर्थिक हानि होती है, तो प्रेय (क्षणभंगुर सुख) का मार्ग चुनने वाला व्यक्ति इस पर कैसी प्रतिक्रिया देगा, और श्रेय का मार्ग चुनने वाला व्यक्ति इस स्थिति को अपनी साधना के लिए किस प्रकार उपयोग करेगा?

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