Thursday, 16 October 2025

परम सुख एवं शांति का मार्ग: आत्मनिरीक्षण की विद्या...

 



मनुष्य स्वभाव से ही सुख और शांति की चाह रखता है। लेकिन, हमारे जीवन की सच्चाई इससे कोसों दूर है। समय-समय पर हम द्वेष, क्रोध, भय, ईर्ष्या, और दौर्मनस्य जैसे नकारात्मक भावों के कारण दुखी होते हैं। यह दुख केवल हम तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि हमारे आसपास के वातावरण को भी अप्रसन्न बना देता है, और हमारे संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को प्रभावित करता है। यह जीवन जीने का सही तरीका नहीं है।

हम सभी समाज के प्राणी हैं, और हमें शांतिपूर्वक जीवन जीना चाहिए, साथ ही औरों के लिए भी शांति का निर्माण करना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि इस सामाजिक परिवेश में, जहाँ हमें तरह-तरह के लोगों और परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, हम अपने भीतर सुख एवं शांति कैसे स्थापित करें, और अपने आस-पास भी सौमनस्यता का वातावरण कैसे बनाएँ?


अशांति और बेचैनी का मूल कारण

हमारे दुख और अशांति का मूल कारण जानने के लिए जब हम गहराई से ध्यान देते हैं, तो यह साफ होता है कि हमारा मन जब विकारों से ग्रस्त हो जाता है, तभी वह अशांत हो जाता है। मन में विकार हों और हम सुख एवं शांति का अनुभव करें, यह संभव नहीं है।

ये विकार क्यों और कैसे आते हैं? ये विकार तब उत्पन्न होते हैं जब कोई व्यक्ति हमारे मनचाहे ढंग से व्यवहार नहीं करता, या जब कोई अनचाही घटना घटती है। ऐसी अनचाही घटनाओं या मनचाही चीज़ों के न होने की प्रतिक्रियास्वरूप हम भीतर ही भीतर तनावग्रस्त हो जाते हैं। हम अपने अंदर गांठे बांधने लगते हैं। चूँकि जीवन में अनचाही घटनाएँ होती ही रहती हैं और मनचाही इच्छाएँ कभी पूरी होती हैं, कभी नहीं, इसलिए हम जीवन भर प्रतिक्रिया करते रहते हैं, और हमारा पूरा शरीर तथा मन विकारों और तनाव से भर जाता है, जिससे हम दुखी होते हैं।


दुख से बचने के पारंपरिक उपाय

इस दुख से बचने का एक असंभव उपाय यह है कि जीवन में कोई अनचाही घटना हो ही न, सब कुछ मनचाहा ही हो। चूँकि विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी सारी इच्छाएँ पूरी होती हों, यह उपाय कारगर नहीं हो सकता। जीवन में विषम परिस्थितियाँ आती ही हैं। ऐसे में प्रश्न यह है कि हम विषम परिस्थितियों के पैदा होने पर अंध प्रतिक्रिया न दें और तनावग्रस्त हुए बिना अपने मन को शांत व संतुलित कैसे रखें?

भारत और बाहर के कई संत पुरुषों ने इस समस्या के समाधान की खोज की। उन्होंने एक उपाय बताया कि जब भी मन में क्रोध, भय या कोई अन्य विकार उत्पन्न हो, तो तुरंत अपने मन को किसी और काम में लगा दें। उदाहरण के लिए, पानी पी लें, गिनती गिननी शुरू कर दें, या कोई मंत्र, जप, या देवता का नाम जपना शुरू कर दें। इससे मन कुछ हद तक विकारों से मुक्त हो जाता है।

यह उपाय कुछ हद तक सहायक होता है, लेकिन यह केवल मन की ऊपरी सतह पर ही काम करता है। वस्तुतः, यह विकारों को अंतर्मन की गहराइयों में दबा देता है। सतह पर शांति का लेप लग जाता है, लेकिन गहराई में दबे हुए विकारों का सुप्त ज्वालामुखी समय पाकर फूट पड़ता है।



भीतर के सत्य की वैज्ञानिक खोज

भीतर के सत्य की खोज करने वाले कुछ वैज्ञानिकों ने इसके आगे खोज की। उन्होंने यह अनुभव किया कि मन को और काम में लगाना समस्या से दूर भागना है। पलायन सही उपाय नहीं है, हमें समस्या का सामना करना चाहिए। उन्होंने कहा: मन में जब विकार जागे, तब उसे देखो, उसका सामना करो। जैसे ही आप विकार को देखना शुरू कर देंगे, वह क्षीण होता जाएगा और धीरे-धीरे उसका क्षय हो जाएगा।

यह उपाय दमन (विकारों को दबाना) और खुली छूट (अकुशल कर्मों द्वारा व्यक्त करना) की दोनों अति को टालता है। केवल देखने मात्र से विकारों का क्षय हो जाता है और उनसे छुटकारा मिलता है।

लेकिन, कहना आसान है, करना कठिन। जब क्रोध जागता है तो वह इतना हावी हो जाता है कि हमें पता भी नहीं चलता। विकार का जन्म मन की गहराईयों में होता है और जब तक वह ऊपरी सतह तक पहुँचता है, तब तक इतना बलवान हो जाता है कि हम पर हावी हो जाता है, और हम होश खो बैठते हैं।

यदि कोई हमें याद भी दिलाए कि क्रोध आ गया है, तो क्रोध से अभिभूत व्यक्ति उस सलाह को भी अस्वीकार कर देता है। और यदि हम देखने का प्रयास भी करें, तो हम क्रोध को नहीं, बल्कि क्रोध के आलंबन (जिस व्यक्ति या घटना के कारण क्रोध आया) को देखने लगते हैं, जिससे क्रोध और बढ़ जाता है। आलंबन को काटकर केवल विकार को देखना आसान नहीं होता।


विपश्यना: आत्मनिरीक्षण का प्रायोगिक उपाय

परम मुक्त अवस्था तक पहुँचे हुए व्यक्तियों ने एक प्रायोगिक उपाय खोजा। उन्होंने पाया कि जब भी मन में कोई विकार जागता है, तो उसी क्षण शरीर पर दो घटनाएँ शुरू हो जाती हैं:

  1. सांस की गति का बदलना: मन में विकार आते ही, साँस अपनी नैसर्गिक गति खोकर तेज एवं अनियमित हो जाती है। इसे देखना आसान है।

  2. संवेदनाओं का निर्माण: सूक्ष्म स्तर पर शरीर में एक जीव-रासायनिक प्रक्रिया शुरू होती है, जिसके परिणामस्वरूप संवेदनाओं का निर्माण होता है। हर विकार शरीर पर कोई न कोई संवेदना उत्पन्न करता है।

मन और शरीर का यह परस्पर संबंध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मन में कोई भी विचार या विकार जागता है तो तुरंत साँस और संवेदनाओं को प्रभावित करता है।

साँस और संवेदनाएँ दो तरह से मदद करती हैं:

  1. प्राइवेट सेक्रेटरी का काम: जैसे ही विकार जागा, साँस अपनी स्वाभाविकता खो देगी, जो हमें बताएगी—'देख, कुछ गड़बड़ है!' संवेदनाएँ भी यही चेतावनी देंगी।

  2. विकार का सामना: चेतावनी मिलने के बाद, हम साँस एवं संवेदनाओं को देख सकते हैं। ऐसा करने पर शीघ्र ही विकार दूर होने लगता है।

सामान्य व्यक्ति अमूर्त विकारों (क्रोध, भय) को नहीं देख सकता, लेकिन उचित प्रशिक्षण और प्रयास से साँस और शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को आसानी से देख सकता है। साँस एवं संवेदनाओं को देखकर, हम वास्तव में विकारों को ही देख रहे हैं। हम पलायन नहीं कर रहे, बल्कि विकारों के सम्मुख होकर सच्चाई का सामना कर रहे हैं। अभ्यास करते रहने से विकारों की ताकत कम होती है और धीरे-धीरे उनका निर्मूलन हो जाता है।


विपश्यना: जीवन जीने की कला

इस प्रकार आत्मनिरीक्षण की यह विद्या हमें भीतर और बाहर दोनों सच्चाइयों से अवगत कराती है। हम अब तक अपने दुख का कारण हमेशा बाहर की परिस्थितियों में ढूँढते थे। लेकिन इस अभ्यास के कारण, हम यह जान पाते हैं कि हमारे दुख का कारण भीतर है—वह है सुखद एवं दुखद संवेदनाओं के प्रति हमारी अंध प्रतिक्रिया

जब हम साँस या संवेदना को मानसिक संतुलन खोए बिना देखते हैं, तो प्रतिक्रिया बंद हो जाती है। प्रतिक्रिया बंद होने से दुख का संवर्धन नहीं होता, बल्कि विकार उभर कर आते हैं और उनका क्षय होता है। जैसे-जैसे मन विकारों से मुक्त होता है, यह शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त हमेशा प्रेम (मंगल मैत्री), करुणा, मुदिता (दूसरों के सुख में प्रसन्नता) एवं समता से भरा रहता है।

यह पवित्र तटस्थता पलायनवाद नहीं है। विपश्यना का नियमित अभ्यास करने वाला व्यक्ति औरों के दुखों के प्रति अधिक संवेदनशील होता है, और बिना व्याकुल हुए उनकी मदद के लिए मैत्री, करुणा एवं समता भरे चित्त के साथ प्रयत्नशील होता है।

भगवान बुद्ध ने यही सिखाया—जीवन जीने की कला। उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की, बल्कि भीतर की नैसर्गिक सच्चाई को देखना सिखाया। जब सच्चाई को जैसी-है-वैसी देखने की प्रज्ञा जागृत होती है, तो अंध प्रतिक्रिया का स्वभाव दूर होता है, और हम संतुलित चित्त से सकारात्मक एवं सृजनात्मक क्रियाएँ करते हैं।


विपश्यना साधना के सोपान

विपश्यना का अर्थ है चीज़ों को उनके सही रूप में देखना, न कि केवल जैसा वे ऊपर-ऊपर से प्रतीत होती हैं। भासमान सत्य के परे जाकर शरीर एवं मन के परमार्थ सत्य को जानना आवश्यक है। विपश्यना साधना के शिविर में दिए जाने वाले प्रशिक्षण के तीन सोपान हैं:

  1. शील (नैतिक आचरण): ऐसे शारीरिक एवं वाचिक कर्मों से विरत रहना, जिनसे औरों की सुख-शांति भंग होती हो (जीव-हत्या, चोरी, कामसंबंधी मिथ्याचार, असत्य भाषण, नशे का सेवन)। शील पालन से मन कुछ हद तक शांत होता है।

  2. समाधि (मन को वश में करना): नैसर्गिक साँस को लगातार देखते हुए मन को एक आलंबन पर टिकाना। इससे मन एकाग्र, शांत और तीक्ष्ण हो जाता है।

  3. प्रज्ञा (सच्चाई का अनुभव): संवेदनाओं के रूप में प्रकट होने वाले सतत परिवर्तनशील मन एवं शरीर के परस्पर संबंध को सुव्यवस्थित विधि से एवं समता के साथ देखते हुए अपने बारे में सच्चाई का अनुभव करना। यह आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि है।

यह सार्वजनीन विद्या है। भीतर की सच्चाई को देखकर सत्य को जैसा है वैसा देखना ही अपने आपको प्रत्यक्ष अनुभव से जानना है। धीरजपूर्वक प्रयत्न करते हुए हम स्थूल भासमान सत्य से शुरू करके शरीर एवं मन के परमसत्य तक पहुँचते हैं, और अंततः विकारों से पूर्ण मुक्ति का सत्य, सभी दुखों से पूर्ण मुक्ति का सत्य प्राप्त करते हैं।

सबका मंगल हो।


एक प्रश्न:

उपर्युक्त लेख के अनुसार, विपश्यना साधना का वह कौन सा सोपान है जो विकारों के दमन मात्र को टालकर, विकारों के निर्मूलन द्वारा मन की शुद्धता का कार्य करता है?

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