पोषण की बदलती तस्वीर: दो विपरीत परिदृश्य
ग्रामीण भारत में पोषण की चुनौती एक जैसी नहीं है। यहाँ दो मुख्य वर्ग उभरते हैं, दोनों ही कुपोषण के शिकार हैं, लेकिन अलग कारणों से:
पहला वर्ग: साधनों की सीमा
यह वर्ग वो है जिसका भोजन चावल-रोटी-दाल के त्रिकोणीय व्यवस्था तक सिमट गया है। आईसीआरईएसएटी के अध्ययन बताते हैं कि भारत के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में अधिकांश प्रोटीन केवल अनाज से आ रहा है। यह सीमित आहार, आवश्यक खाद्य विविधता (Food Diversity) को पूरा नहीं कर पाता, जिससे थाली में माइक्रोन्यूट्रिएंट्स (सूक्ष्म पोषक तत्वों) की कमी रह जाती है।
दूसरा वर्ग: आधुनिकता का भ्रम
यह वह वर्ग है जो आर्थिक रूप से बेहतर होते हुए भी, पारंपरिक भोजन से दूर चला गया है। इन्हें लगता है कि बाजार से खरीदा गया पैकेज्ड फूड, पाउडर दूध, बिस्किट और फोर्टिफाइड फूड ही आधुनिक और पौष्टिक है। भारत के बढ़ते बेबी फूड मार्केट (जो 2030 तक 10% की दर से बढ़ने का अनुमान है) के आंकड़े इस आधुनिक भ्रम की पुष्टि करते हैं। इस वर्ग में पोषण की कमी का कारण अज्ञानता और बाजारीकरण का दबाव है, न कि गरीबी।
दोनों ही स्थितियाँ बच्चों और परिवारों को स्थानीय, मौसमी और पारंपरिक व्यंजनों से दूर कर देती हैं, और पोषण की मौलिक समझ में कमी को दर्शाती हैं।
पारंपरिक आहार: प्रकृति का मौसमी संतुलन
आदिवासी और ग्रामीण समाज की सबसे बड़ी ताकत उनका स्थानीय खाद्य तंत्र (Local Food System) रहा है। खेतों और जंगल से मिलने वाले बिना खेती के खाद्य पदार्थ—जैसे लाल भाजी, बथुआ, कोदो-कुटकी और विभिन्न प्रकार की स्थानीय दालें—हमारी थाली को स्वतः ही पोषण से भर देती थीं।
हमारा पारंपरिक ज्ञान इतना समृद्ध था कि यह भोजन को मौसम के अनुसार ढालता था, जो शरीर को ऋतु-अनुकूल बनाता था:
गर्मियों में: बेल, छाछ, जौ का सत्तू शरीर को ठंडक देते थे।
बरसात में: कोदो-कुटकी और जंगल की हरी सब्ज़ियाँ रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती थीं।
सर्दियों में: बाजरा, गुड़, तिल और बथुए का साग शरीर को गर्मी और ताकत देता था।
आज स्थिति विपरीत है। साल भर बाजार में मिलने वाले सीजन-रहित फल और रेडीमेड स्नैक्स (जैसे मैगी, बिस्किट) हमारी इस ऋतु-अनुकूल क्षमता को कमजोर कर रहे हैं। बाजार का दबाव हमें घर के पास उगने वाली पौष्टिक लाल-भाजी को छोड़कर, स्टोर किए गए विदेशी फलों को आधुनिक पोषण मानने पर मजबूर कर रहा है।
कुपोषण की जड़ें: खेती और ज्ञान का टूटना
ग्रामीण पोषण संकट की दो प्रमुख जड़ें हैं:
1. एग्री-कल्चर से एग्री-बिजनेस की ओर बदलाव
परंपरागत खेती का उद्देश्य हमेशा भोजन और पोषण रहा था, न कि केवल मुनाफा। हरित क्रांति के बाद, नकदी फसलें (सोयाबीन, कपास, गन्ना) हावी हो गईं। किसान अब अपनी थाली के लिए नहीं, बल्कि बाजार के लिए खेती करने लगा है। बांसवाड़ा के एक अध्ययन के अनुसार, जहाँ पहले 100 से अधिक पारंपरिक खाद्य पदार्थ थाली में शामिल थे, वहीं अब यह संख्या घटकर 12-13 रह गई है। कृषि उत्पादन बढ़ने के बावजूद कुपोषण कम न होने का यही मुख्य कारण है—खेती और पोषण की चेन टूट गई है।
2. पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान का घटता हस्तांतरण
पोषण का असली स्कूल घर की रसोई थी। दादी-नानी से माँ और बेटी तक व्यंजनों और आहार का ज्ञान बिना किसी किताब के पहुँचता था। आधुनिक शिक्षा और बाजार संस्कृति ने इस पोषण संवाद को कमजोर कर दिया है। जब ज्ञान का यह सिलसिला टूटता है, तो युवा पीढ़ी अपने ही पारंपरिक और पौष्टिक ज्ञान से कट जाती है।
समाधान: स्वराज और स्थानीयता की वापसी
सरकारी योजनाएं (जैसे आंगनवाड़ी, मिड-डे मील) आवश्यक हैं, लेकिन वे अकेले कुपोषण नहीं मिटा सकतीं। बांसवाड़ा के उदाहरणों से पता चला है कि जब बच्चों को स्थानीय पोषण पर आधारित भोजन (जैसे रागी-सब्जी के लड्डू) दिए गए, तो 15 दिन में ही 68% बच्चों के पोषण स्तर में सुधार दिखा।
इस संकट से निकलने का रास्ता 'पोषण पर स्वराज' में है। इसका अर्थ है भोजन और संसाधनों का नियंत्रण परिवार और समुदाय के हाथ में हो, न कि केवल सरकार या बाजार के।
आगे की राह: जड़ों से जोड़ना
परिवार और समुदाय स्तर पर:
पोषण संवाद: दादी-नानी के पारंपरिक व्यंजनों को आधुनिक ज्ञान से जोड़ा जाए।
सामुदायिक बीज बैंक: पारंपरिक फसलों (बाजरा, कोदो, कुटकी) को संरक्षित किया जाए।
एसएचजी (SHG) की भूमिका: महिलाओं को स्थानीय अनाज से पोषण मिक्स, सत्तू बनाने की ट्रेनिंग दी जाए।
शिक्षा और संस्थान स्तर पर:
स्कूलों में किचन गार्डन: बच्चों को सिखाया जाए कि भोजन कहाँ से आता है और मौसमी भोजन क्यों महत्वपूर्ण है।
मिड-डे मील में बदलाव: योजनाओं में स्थानीय मौसमी सब्जियों और बाजरा-रोटी को शामिल किया जाए।
नीति और सरकार स्तर पर:
लोकल फूड से योजनाओं को जोड़ना: टेक-होम राशन में बाज़ार के रेडी-टू-ईट की जगह क्षेत्रीय अनाज (जैसे राजस्थान में बाजरा आधारित मिक्स) पर ज़ोर दिया जाए।
एमएसपी (MSP) का विस्तार: बाजरा, ज्वार, रागी और दलहन जैसी पोषण फसलों पर भी सरकारी प्रोत्साहन बढ़ाया जाए ताकि किसान मुनाफे के लिए भी अपनी थाली के लिए खेती करें।
पोषण की असल चाबी हमारी अपनी परंपराओं, स्थानीय संसाधनों और सामुदायिक आत्मनिर्भरता में छुपी हुई है। केवल महंगे वाणिज्यिक उत्पादों पर निर्भरता से हम इस संकट को हल नहीं कर सकते।
प्रश्न: आपके विचार से, ग्रामीण भारत में पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक पोषण विज्ञान से जोड़ने का सबसे प्रभावी तरीका क्या हो सकता है?
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