Monday, 25 August 2025

लोक कला की सुनहरी कहानी: 'सिक्की कला'...

भारत की मिट्टी में कई अद्भुत कलाएं समाहित हैं और ऐसी ही एक कला है सिक्की कला, जो बिहार की पहचान है। यह कला सिर्फ हाथों का हुनर नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा और लोक संस्कृति का हिस्सा है। अक्सर गांवों में, जहां ज़रूरत ही कला को जन्म देती है, महिलाएं अपने हुनर से इस कला को जीवंत रखती हैं।
प्रकृति से कला का सफर
सिक्की कला का नाम ही इस बात का प्रमाण है कि यह घास से बनती है। इस कला के लिए इस्तेमाल होने वाली मुख्य सामग्री एक खास तरह की घास है, जिसे 'सिक्की' या 'मूंज' कहते हैं। गर्मियों में जब मूंज के बीच से 'बेरुआ' निकलता है, तो कला का सफर शुरू होता है। इस बेरुआ को अलग-अलग रंगों में रंगा जाता है और सूखने के बाद ये सुनहरी घास रचनात्मकता का कैनवास बन जाती है।
यह कला बिहार के हर कोने में फैली है, ख़ासकर मिथिलांचल और भोजपुरिया इलाकों में। नदियों और तालाबों के किनारे उगने वाली यह घास, कुशल कारीगरों के हाथों में आकर जीवन का रूप ले लेती है। महिलाएं इससे घरेलू सामान जैसे कि दऊरी (टोकरी), मऊनी, सिंहोरा, सिकौती, पंखे, चटाई और सजावट की वस्तुएं बनाती हैं। यह कला सिर्फ़ सामान बनाने तक सीमित नहीं, बल्कि शुभ कार्यों और रीति-रिवाजों का भी एक अहम हिस्सा है।
परंपरा और सम्मान का संगम
इस कला का महत्व सिर्फ़ रोज़मर्रा की चीज़ें बनाने तक ही सीमित नहीं है। बेटी की विदाई के समय, खर (एक प्रकार की घास) से बनी मौनी, पौती, सजी और अन्य उपहार देने की पुरानी परंपरा रही है। मूंज से बनी रस्सी का इस्तेमाल शुभ कार्यों, यहां तक कि बेटी के विवाह में मंडप बनाने के लिए भी होता है। ये परंपराएं दर्शाती हैं कि सिक्की कला केवल हस्तशिल्प नहीं, बल्कि जीवन के हर महत्वपूर्ण पड़ाव से जुड़ी हुई है।
आजकल इस कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पहचान मिली है, और इसके लिए कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिए गए हैं। यह खुशी की बात है कि यह कला अब गांव की सीमाओं से बाहर निकलकर बड़े मंचों तक पहुंच रही है।
हालांकि, एक दुखद पहलू भी है। जहां मिथिलांचल में इस कला को पेटेंट करवाकर इसे संरक्षित किया गया, वहीं भोजपुरिया इलाके में, जहां यह कला उतनी ही समृद्ध और लोकप्रिय थी, उसे उचित सम्मान और पहचान नहीं मिल पाई। छपरा, सीवान, गोपालगंज, बेतिया और मोतिहारी जैसे क्षेत्रों में भी यह कला गहरी जड़ें रखती है, जैसा कि वहां के लोक गीतों में भी सुनाई देता है - "हम त खेलत रहनी सुपली मौनिया"।
सिक्की कला सिर्फ़ एक हस्तकला नहीं है, बल्कि यह बिहार की सांस्कृतिक विरासत की एक खूबसूरत झलक है। यह हमें सिखाती है कि कैसे प्रकृति और कला मिलकर अद्भुत चीज़ें बना सकती हैं। यह एक ऐसी लोक कला है, जिसे सही सम्मान और संरक्षण मिलने से, यह और भी ऊंचाइयों को छू सकती है।

No comments:

Post a Comment