वर्ष 2024… समय इतनी तेजी से बदल गया है कि अब 1980 और 1990 का बचपन किसी परी-कथा जैसा लगता है। आज जो लोग 40 के पार हो चुके हैं या उस दहलीज़ पर खड़े हैं, वे खुद को दुनिया की सबसे ख़ास और भाग्यशाली पीढ़ी मान सकते हैं। क्यों? क्योंकि हमने दो युगों के बीच की उस ‘संक्रमण रेखा’ को पार किया है, जहां मिट्टी की सोंधी खुशबू और डिजिटल स्क्रीन की चकाचौंध एक साथ सांस लेती थी।
हम वो आख़िरी पीढ़ी हैं जिसने बैलगाड़ी की धीमी चाल भी देखी है और आज के सुपर सोनिक जेट की रफ्तार भी। एक दौर वो भी था जब बैरंग ख़त हफ्तों में पहुंचते थे, और आज व्हाट्सऐप मैसेज पल भर में पूरी दुनिया में घूम आता है।
हमने टेलीग्राम से लेकर टेलीग्राम ऐप तक का सफर जिया है। रेडियो के बिनाका गीतमाला से लेकर स्पॉटिफाई की प्लेलिस्ट तक – हमने समय को पलटते हुए देखा है।
हमारा बचपन – मिट्टी में रचा-बसा था
हम वो पीढ़ी हैं जिनका बचपन मिट्टी के घरों, फूस की छतों और गायों की घंटियों के बीच बीता। हम ज़मीन पर बैठकर बड़े प्यार से खाना खाते थे, और प्लेट में डाल-डाल कर चाय पीने का मज़ा कुछ और ही था।
चांदनी रातों में डीबरी और लालटेन की हल्की रोशनी में होमवर्क करना, किताबों में मुंह छुपाकर नावेल पढ़ना, और बिना बिजली के रातें काटना – यही तो असली रोमांच था। गर्मी में छत पर पानी छिड़कना और सफेद चादर बिछाकर परिवार के साथ सोना, एक स्टैंड वाला पंखा सबके लिए घुमाना – इन पलों में जो अपनापन था, वो आज के एसी रूम में कहां?
हमने खेले वो खेल, जिनका आज नाम भी नहीं जानते लोग
गिल्ली-डंडा, कंचे, खो-खो, लंगड़ी टांग, छुपा-छुपी, कबड्डी – ये सिर्फ खेल नहीं थे, ये बचपन की धड़कनें थीं। मोहल्ले के मैदानों में हर दिन नई कहानी रचती थी। न मोबाइल था, न वीडियो गेम – लेकिन मस्ती की कोई कमी नहीं थी।
हमने जज़्बातों को खतों में बांधा
आज के इमोजी और रील्स के जमाने से बहुत पहले, हमने अपने दिल की बात चिट्ठियों में लिखी। वो हाथ से लिखे हुए खत – जिनमें शब्दों से ज्यादा जज़्बात होते थे। एक खत का इंतजार हफ्तों नहीं, महीनों चलता था… और जवाब आने पर दिल खुशियों से भर जाता था।
हम वो हैं जो ‘मास्टरजी’ से डांट खाते-खाते बड़े हुए
हम वही आख़िरी पीढ़ी हैं जिन्हें स्कूल में स्याही वाले पेन, दवात और तख्ती का इस्तेमाल करना आता था। कई बार कॉपी-किताब, कपड़े और हाथ नीले-काले हो जाते थे। बालों में सरसों का तेल लगाकर स्कूल जाना आम बात थी। सफेद केनवास शूज़ को खड़िया से चमकाना एक कला थी।
और हाँ, टीचर की मार खाई है हमने – और घर जाकर बताने पर दोबारा मार भी पड़ी है। लेकिन आज भी उन्हीं मास्टर साहब की इज़्ज़त दिल में बसी हुई है।
संस्कारों की परछाई में पला बचपन
हम मोहल्ले के बुजुर्गों को दूर से देखते ही रास्ता बदल लेते थे। उन्हें देखकर आंखें झुक जाती थीं – ये सम्मान, ये संस्कार अब दुर्लभ हैं। हमने गुड़ की चाय पी है, कोयले या नमक से दांत साफ किए हैं, और लाल-काले दंत मंजन का स्वाद आज भी ज़ुबान पर चढ़ा है।
रेडियो – हमारी खिड़की थी दुनिया से जुड़ने की
BBC की ख़बरें, विविध भारती, बिनाका गीतमाला, हवा महल – रेडियो हमारे जीवन का हिस्सा था। परिवार एक साथ बैठकर प्रोग्राम सुनता था, और एक-एक शब्द में रूचि होती थी। आज की तरह बैकग्राउंड में नहीं, बल्कि ‘मन से सुनना’ आता था हमें।
हम वो पीढ़ी हैं, जिनके पास अनुभवों का खजाना है
हमने तकनीक को जन्म लेते देखा है। ब्लैक एंड व्हाइट टीवी से लेकर स्मार्ट स्क्रीन तक, डायरेक्टरी से नंबर ढूंढने से लेकर गूगल सर्च तक – यह बदलाव हमारी आंखों के सामने हुआ है। हम न तो तकनीक से डरते हैं, न ही अतीत को भूले हैं।
निष्कर्ष: हम बदलाव की आख़िरी गवाह पीढ़ी हैं
हम वो पुल हैं जो अतीत और भविष्य को जोड़ता है। हमने उस दुनिया को जिया है जहां कम में भी सुकून था, और अब उस दुनिया को देख रहे हैं जहां सब कुछ होते हुए भी सन्नाटा है। हमारे बच्चों को शायद ये बातें कहानियों जैसी लगें, लेकिन हमारे लिए ये असल ज़िन्दगी थी।
आज जब हम अतीत को याद करते हैं तो एक मीठी सी टीस उठती है। लेकिन फिर भी गर्व होता है कि हम वो आखिरी सौभाग्यशाली पीढ़ी हैं, जिसने दो दुनिया का स्वाद चखा है।
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