एक समय था जब गाँव के बियाह एक बड़े समारोह की तरह मनाए जाते थे। ये सिर्फ दो परिवारों का मिलन ही नहीं, बल्कि पूरे गाँव का उत्सव होता था। आज के दौर के भव्य शादियों और कैटरिंग सेवाओं से बहुत अलग, ये शादियाँ सादगी और पारंपरिक रीति-रिवाजों से भरी होती थीं।
समाजिकता और सहयोग का उत्सव
गाँव के लोग मिल-जुलकर शादी की तैयारियाँ करते थे। हर घर से चारपाई, बर्तन, और खाना बनाने के सामान आता था। गाँव की महिलाएँ मिलकर खाना बनातीं, दुलहन को तैयार करतीं, और शादी के गीत गातीं। डीजे या बैंड की जगह, गाँव के लोग ही गीत गाकर माहौल को खुशनुमा बनाते थे। गाँव के बड़े लोग भी इस आयोजन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे।
सम्मान और आदर की भावना
गाँव में शादी में खाना परोसने से पहले गाँव के लोग खुद नहीं खाते थे। यह एक तरह से बारातियों का सम्मान करना होता था। महिलाएँ गीत गाती हुई अपना काम करती रहतीं। इस तरह, शादी में सामाजिकता के साथ-साथ सम्मान और आदर की भावना भी दिखाई देती थी।
परंपराओं का पालन
गाँव के बियाह में कई तरह की परंपराएँ निभाई जाती थीं। दूल्हे को युवराज की तरह सजाया जाता था। नाऊ हमेशा उसके आसपास रहता और उसे सजता रहता। पंडित जी की महाभारत रात भर चलती। कोहबर की रस्म भी होती थी, जिसमें दूल्हा और दुल्हन को कुछ समय के लिए अकेले में बात करने का मौका मिलता था। खिचड़ी की रस्म में दूल्हे को खिचड़ी खाने से मनाया जाता था। अचर धरउवा की रस्म में दूल्हे का वधू पक्ष की महिलाओं से परिचय करवाया जाता था।
बदलते जमाने का असर
आज के समय में गाँव के बियाहों का रूप बदल गया है। टेंट हाउस, कैटरिंग, और डीजे ने पारंपरिक तरीकों को पीछे छोड़ दिया है। सामाजिकता और सहयोग की भावना कम हो गई है। हालांकि, कुछ गाँवों में आज भी पारंपरिक तरीकों से शादियाँ होती हैं।
निष्कर्ष
गाँव के बियाह हमारे समाज की संस्कृति और परंपराओं का एक अहम हिस्सा हैं। ये शादियाँ हमें हमारे अतीत से जोड़ती हैं और हमें सामाजिकता, सहयोग, और सम्मान जैसे मूल्यों की याद दिलाती हैं।
यह लेख गाँव के बियाहों से जुड़े विभिन्न पहलुओं को सरल भाषा में समझाता है। इसमें पारंपरिक रीति-रिवाजों, सामाजिकता, और बदलते जमाने के असर को शामिल किया गया है।
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