शादी एक पवित्र संस्कार है – एक ऐसा बंधन जो सिर्फ दो व्यक्तियों को नहीं, बल्कि दो परिवारों, दो संस्कृतियों और कभी-कभी दो गाँवों को भी जोड़ता है। लेकिन अगर बात गाँव की शादी की हो, तो यह एक व्यक्ति या परिवार की नहीं, बल्कि पूरे गाँव की बात बन जाती है। यह कोई एक आयोजन नहीं होता, बल्कि सामाजिक समरसता, परंपराओं और भावनाओं का ऐसा संगम होता है जिसमें हर कोई स्वेच्छा से भागीदार बनता है।
शहरों में जहाँ शादियाँ बड़ी-बड़ी बुकिंग्स, डेकोरेशंस और डीजे की चकाचौंध में सीमित होती जा रही हैं, वहीं गाँवों में अब भी कुछ हद तक वो आत्मीयता, वो मिल-जुलकर काम करने की भावना और रस्मों में छुपे भाव जीवित हैं। गाँव के बियाह सिर्फ शादी नहीं होते, वो समाज की आत्मा के रंगीन पन्ने होते हैं।
1. सामाजिकता और सहयोग का उत्सव
गाँव में जैसे ही किसी घर में शादी तय होती है, तो वो सिर्फ एक परिवार की तैयारी नहीं होती — पूरा गाँव एक बड़े परिवार में बदल जाता है।
किसी को औपचारिक निमंत्रण की जरूरत नहीं होती। लोग खुद से आते हैं, पूछते हैं —
"कब है बियाह?",
"का मदद चाही?"
और फिर लग जाते हैं।
कोई अपने बर्तन दे देता है,
कोई चारपाई या खाट,
कोई मसाले या दाल-चावल,
और कई लोग अपने हाथों का श्रम — जो सबसे मूल्यवान होता है।
शादी से कुछ दिन पहले ही गाँव के लोग दो हिस्सों में बँट जाते हैं – लड़के वाले और लड़की वाले – लेकिन इस बँटवारे में भी एकता होती है, मुकाबला नहीं। दोनों पक्ष हँसी-मज़ाक करते हैं, लेकिन प्रेम से।
महिलाओं की टोली दुल्हन को सजाने, गीत गाने, और पकवान बनाने में व्यस्त हो जाती है।
पुरुषों की टोली चूल्हा-भांठा, पंडाल सजावट, मेहमानों की व्यवस्था जैसे जिम्मेदारियों में लग जाती है।
शादी के दिन DJ या बैंड की आवाज़ों की जगह ढोलक, मंजीरा, झाल और कंठ संगीत होता है – जिसमें गाँव की हर स्त्री अपने अनुभव, अपनी भावनाएँ और परंपरा को गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करती है।
2. आदर, संस्कार और मेहमाननवाजी की मिसाल
गाँव की शादियों की सबसे बड़ी पहचान है – अतिथि सत्कार।
जब बारात आती है, तो पूरे गाँव के बच्चे, बुज़ुर्ग, महिलाएँ, सब स्वागत के लिए तैयार रहते हैं। दरवाजे पर आरती और गीत से स्वागत होता है।
उसके बाद सबसे पहली जिम्मेदारी होती है – भोजन की व्यवस्था।
गाँव का एक अलिखित नियम होता है –
"पहले मेहमान, फिर हम।"
भले ही घरवाले भूखे रह जाएँ, लेकिन बारातियों को पूरी सेवा और सम्मान मिलता है।
गाँव की महिलाएँ बारातियों को खाना परोसती हैं, और साथ ही साथ गीतों से अपने भाव प्रकट करती हैं। ये गीत मात्र मनोरंजन नहीं होते — ये पीढ़ियों से चलती आ रही एक मौखिक संस्कृति होती है, जो हर शादी में नए रूप में जीवित होती है।
3. परंपराएँ: भावनाओं की गहराई और सांस्कृतिक समृद्धि
गाँव के बियाह में हर रस्म का एक गहरा भावार्थ होता है:
➤ दूल्हे की सवारी:
दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर आता है, सिर पर साफा और चेहरे पर आत्मविश्वास। उसके साथ नाई रहता है जो उसकी सेवा में तत्पर रहता है — यह दर्शाता है कि आज वह युवराज है।
➤ महाभारत (विवाह मंत्र):
पंडित जी पूरी रात मंत्रोच्चार करते हैं। गाँव की महिलाएँ इसे 'महाभारत पढ़ना' कहती हैं। यह रातभर चलने वाला क्रम केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता — यह दो परिवारों के जुड़ाव की आधिकारिक और पवित्र घोषणा होती है।
➤ कोहबर की रस्म:
विवाह के बाद दूल्हा-दुल्हन पहली बार साथ में बैठते हैं, बातें करते हैं, खेल-खेल में एक-दूसरे को समझते हैं। इसमें संकोच कम होता है और संबंधों में आत्मीयता आती है।
➤ खिचड़ी की रस्म:
दूल्हे को सादे लेकिन प्रेम से बने खाने (खिचड़ी) से सम्मानित किया जाता है। यह दिखाता है कि रिश्तों की मिठास खर्च या दिखावे में नहीं, भावों में होती है।
➤ अचर धरउवा:
यह एक मनोरंजक रस्म होती है, जिसमें वधू पक्ष की महिलाएँ दूल्हे से हँसी-ठिठोली करती हैं, उसका परिचय लेती हैं और अपनेपन का एहसास कराती हैं।
इन रस्मों में गाँव की सोंधी मिट्टी की महक होती है, और वह अपनापन, जो शायद अब शहरों में धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।
4. बदलते समय का असर
समय परिवर्तनशील है, और उसका असर गाँव की शादियों पर भी पड़ा है। आज:
DJ, टेंट हाउस, कैटरिंग, और वेडिंग प्लानर गाँवों में भी दिखने लगे हैं।
दहेज और दिखावे की मानसिकता ने सहयोग की भावना को कुछ हद तक प्रभावित किया है।
सोशल मीडिया पर "लाइव स्ट्रीमिंग" और "इंस्टा रील्स" ने परंपराओं की जगह ले ली है।
लेकिन इन सबके बीच अब भी कुछ गाँव हैं जहाँ लोग आज भी अपनी संस्कृति को जी रहे हैं।
जहाँ आज भी ढोलक की थाप पर गीत गूंजते हैं,
जहाँ आज भी चारपाई, मिट्टी के चूल्हे और सामूहिक श्रम से बियाह संपन्न होता है।
जहाँ आज भी दुल्हा अपनी बारातियों के साथ खेतों के रास्ते नाचते हुए पहुँचता है।
🌿 निष्कर्ष: परंपराओं की पुनर्खोज का समय
गाँव के बियाह सिर्फ शादी नहीं होते — वे होते हैं एक संस्कृति का उत्सव, एक समाज की एकता का प्रदर्शन, और एक मानवीय भावना का जीवंत रूप।
ये शादियाँ दिखावे की नहीं, दिल से दिल की बात होती थीं।
इसमें रीति-रिवाजों में छुपा होता था अनुभव, शिक्षा और भावनाओं का अद्भुत मिश्रण।
इस आयोजन से हर उम्र के व्यक्ति को सीखने और निभाने को कुछ न कुछ मिल जाता था।
आज जब सब कुछ तेज़ रफ्तार में भाग रहा है, तो हमें गाँव की इन सादगी भरी शादियों से रिश्तों की गहराई, सहयोग की भावना और परंपराओं की सुंदरता को समझने की जरूरत है।
अगर हम चाहें, तो आधुनिकता को अपनाते हुए भी अपने संस्कार और संस्कृति को बचा सकते हैं।
क्योंकि परंपरा कोई बोझ नहीं होती — वह वो जड़ होती है, जो किसी भी विकास को स्थायित्व देती है।
🌼 गाँव के बियाह: एक ऐसा दर्पण, जिसमें पूरा समाज झलकता है। 🌼