Monday 30 September 2013

हर किसी को दूसरे की थाली में ज्यादा घी नजर आता है क्यों ?


     आप हों या मैं, प्रायः हम सब को लगता है कि सामने वाला बहुत मजे में है और मैं हूँ कि परेशानी पीछा ही नहीं छोड़ती। पुरानी कहावत भी है “हर किसी को दूसरे की थाली में ज्यादा घी नजर आता है”।

क्यों लगता है ऐसा? - दफ्तर का बाबू सोचता है कि मैं तो मर-मर कर काम कर रहा हूँ पर इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि घर चलाना मुश्किल है। और साहब को देखो कुछ ज्यादा काम करना ना धरना पर मोटी तनख्वाह ऐंठ लेते हैं। घरवाली सोचती है कि मैंने कितना मेहनत कर के खाना बनाया और पतिदेव हैं कि सराहना करना तो दूर उल्टे हमेशा नुक्स निकालते रहते हैं मेरे बनाए खाने में। नौकरी करने वाला सोचता है कि व्यापारी सुखी है, रोज ही पैसे आते हैं उसके पास, यहाँ तो महीने में एक बार वेतन मिलता है जो चार दिन में ही खर्च हो जाता है, उसके बाद फिर वही उधारी। दूसरी तरफ व्यापारी सोचता है कि दिन भर हाय-हाय करो पर बिक्री बढ़ती ही नहीं, नौकरी करने वाला कितना खुश है कि काम कुछ करे कि मत करे, महीना खत्म हुआ और तनख्वाह हाथ में हाजिर! हर किसी को लगता है कि मैं परेशान हूँ और “वो” मजे में है।

क्यों लगता है ऐसा? मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसके परिवार, समाज, कार्यालय आदि में अन्य लोगों से सम्बन्ध बनते तथा बिगड़ते ही रहते हैं। सम्बन्धों का मधुर या कटु होना मनुष्य के व्यवहार पर निर्भर होता है। व्यवहार एकतरफा नहीं बल्कि दोतरफा होता है। जब दो व्यक्ति के बीच सम्बन्ध बनता है तो उस सम्बन्ध पर दोनों ही व्यक्तियों का व्यवहार का प्रभाव पड़ता है।
मनुष्यों के आपसी व्यवहार की चार स्थितियाँ होती है -
मैं मजे में तू मजे में (I’m OK, You’re OK)
मैं मजे में तू परेशान (I’m OK, You’re not OK)
मैं परेशान तू मजे में (I’m not OK, You’re OK)
मैं परेशान तू परेशान (I’m not OK, You’re not OK)
उपरोक्त परिस्थितियाँ किन्हीं भी दो लोगों के बीच हो सकती हैं, चाहे वे बाप-बेटे हों, भाई-भाई हों, पति-पत्नी हों, अधिकारी-कर्मचारी हों, दुकानदार-ग्राहक हों, यानी कि उनके बीच चाहे जैसा भी आपसी सम्बन्ध हों।
यदि दो व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध है और वे दोनों ही एक दूसरे से सन्तुष्ट हैं तो यह सबसे अच्छी बात है। यही ऊपर बताई गई स्थितियों में पहली स्थिति है। किन्तु यह एक आदर्श स्थिति है जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में शायद ही कभी आ पाती है। ज्यादातर होता यह है कि हम अपनी बला दूसरे सिर पर लाद कर खुश होते हैं और दूसरा परेशान रहता है या फिर इसके उल्टे दूसरा व्यक्ति अपने झंझटों को हम पर डाल कर हमें परेशान कर देता है और खुद निश्चिंत हो जाता है। याने कि उपरोक्त बताई गई स्थितियों में दूसरी और तीसरी स्थितियाँ ही हमारे जीवन में अक्सर आते रहती हैं। पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि लाख कोशिश करने के बावजूद हम और सामने वाला दोनों ही संतुष्ट नहीं हो पाते याने कि दोनों के दोनों परेशान। यह चौथी स्थिति है जो कि सबसे खतरनाक है।

मनुष्य के व्यवहार से सम्बन्धित इस विषय पर थॉमस एन्थॉनी हैरिस द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक I’m OK, You’re OK बहुत ही लोकप्रिय है। यह पुस्तक व्यवहार विश्लेषण (Transactional Analysis) पर आधारित है। श्री हैरिस की पुस्तक इस बात का विश्लेषण करती है कि उपरोक्त व्यवहारिक स्थितियाँ क्यों बनती हैं। उनका सिद्धांत बताता है कि मनुष्य निम्न तीन प्रकार से सोच-विचार किया करता है:
बचकाने ढंग से (Child): इस प्रकार के सोच-विचार पर मनुष्य की आन्तरिक भावनाएँ तथा कल्पनाएँ हावी रहती है (dominated by feelings)। आकाश में उड़ने की सोचना इसका एक उदाहरण है।
पालक के ढंग से (Parent): यह वो सोच-विचार होता है जिसे कि मनुष्य ने बचपने में अपने पालकों से, रीति-रिवाजों से, धर्म-सम्बन्धी प्रवचनों आदि से, सीखा होता है (unfiltered; taken as truths)। ‘बड़ों का आदर करना चाहिए’, ‘झूठ बोलना पाप है’, ‘दायें बायें देखकर सड़क पार करना’ आदि वाक्य बच्चों को कहना इस प्रकार के सोच के उदाहरण है।
वयस्क ढंग से (Adult): बुद्धिमत्तापूर्ण तथा तर्कसंगत सोच वयस्क ढंग का सोच होता है (reasoning, logical)। सोच-विचार करने का यही सबसे सही तरीका है।
हमारे सोच-विचार करने के ढंग के कारण ही हमारे व्यवहार बनते है। जब दो व्यक्ति वयस्क ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो ही दोनों की संतुष्टि प्रदान करने वाला व्यवहार होता है जो कि “मैं मजे में तू मजे में (I’m OK, You’re OK)” वाली स्थिति होती है। जब दो व्यक्तियों में से एक वयस्क ढंग से सोच-विचार करके तथा दूसरा बचकाने अथवा पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो “मैं मजे में तू परेशान (I’m OK, You’re not OK)” या “मैं परेशान तू मजे में (I’m not OK, You’re OK)” वाली स्थिति बनती है। किन्तु जब दो व्यक्ति बचकाने या पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो “मैं परेशान तू परेशान (I’m not OK, You’re not OK)” वाली स्थिति बनती है।
किन्तु स्मरण रहे कि यद्यपि वयस्क ढंग से सोच-विचार करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है किन्तु बचकाने ढंग से और पालक ढंग से सोच-विचार करने का भी अपना महत्व है। न्यूटन ने यदि बचकाने ढंग से न सोचा होता तो हमें गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त कभी भी न मिला होता। पालक ढंग से सोचना यदि समाप्त हो जाए तो समाज में भयंकर मनमानी होने लगे।
उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर व्यवहार करने से ही सभी की संतुष्टि हो सकती है..


जिसने मरना सीख लिया जीने का तरीका वह ही सीखेगा ...


      जीवन में संघर्ष आगे बढ़ाता है। हमें विपरित परिस्थितियों सबल सक्षम व सशक्त बनाती है। अन्धेरे के बाद प्रकाश आता है। कठिनाईयों से दुःख पैदा होता है एवं उसका सामना करने में संघर्ष है। संघर्ष करने वाला ही आगे बढ़ता है। चालर्स डार्विन ने संघर्ष करने वाले को ही जीवित रहने का पात्र माना है। कठिनाईयों को वह चुनौती के रुप में लेता है। तभी तो कहां जाता है कि जिसने मरना सीख लिया जीने का अधिकार उसी को है। संघर्ष अभिशाप नहीं, वरदान है। इससे भागने की जरुरत नहीं है। जो संघर्ष करते है वो पाते है। आगे बढ़ने वाले हार कर बैठते है नहीं है। जीतता वहीं है जो संघर्ष करता है। विजय बैठे-बैठे नहीं मिलती है। सफलता संघर्ष के बाद ही मिलती है। परिस्थितियों से, तन्त्र से, समस्याओं से जो लड़ नहीं सकते वे अन्तः हारते है। लड़ने वाले ही जीतते है। इसे न दर्शन माने ,न ही बनाएं। आगे बढ़ने का यह व्यावहारिक व सहज मार्ग है जिसे अपनाएँ। संघर्ष करने वालो की कमी नहीं है। जो भी गरीबी, को छोड़ अपने परिश्रम से आगे बढ़ा है। नेपोलियन जीवन भर लड़ता रहा तो एक दिन सम्राट बना। स्टीफन हांकिग, शरीर से अक्षम होते हुए भी ब्रह्याण्ड के रहस्य जानने में सफल हुए है।
जीवन में संघर्ष का योगदान
जीवन में कमजोर वहीं रह जाता है जिसने कभी कठिनाईयाँ न देखी हो। वह जीवन के सभी रंग नहीं देख पाता है। व्यक्ति अपनी सुख की दुनिया में रहने से अपनी सुप्त शक्तियों को जगा नहीं पाता है। जैसा कि हम जानते है कि तितली के कीड़े को यदि तितली बनने के उपक्रम में मदद करने पर वह मर जाता है। वह स्वयं से संघर्ष करने पर ही स्वस्थ तितली बनती है। संघर्ष के बिना जीवन में आनन्द नहीं है। जो संघर्ष नहीं करते है वे घर पर ही बैठे रहते है। आगे बढ़ने के लिए कठिन मार्ग चुनना पड़ता है। तभी तो चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य से कहता है कि किसी भी कार्य को करने के दो मार्ग होते है। सरल मार्ग मंजिल पर ले जाता है। लेकिन कठिन मार्ग धीरे पहुँचाता है लेकिन निश्चित पहुँचाता है। यह नए अनुभवों के साथ पहुँचाता है। जिस कार्य को करने में थोड़ा खतरा न हो, कोई चुनौती न हो, वह कार्य बड़ी सफलता नहीं दिला सकता है। संघर्ष से नई दृष्टि खुलती है, नए लोगों से मुलाकात होती है। अपनी लापरवाही या कमजोरी की पोल खुलती है। मन में उठती कायरता का ज्ञान होता है। स्वयं के आत्मविश्वास का नाप-तोल भी हो जाता है। स्वयं के व्यवहार व दूसरों के अपनत्व का पता चलता है।
मैं स्वयं अपने अनुभव से यह बात कह सकता हूँ कि मुझे बपचन में गरीबी, परिवार के झगड़े, पिता की डाट-फटकार व पिटाई, माता-पिता की सातवीं संतान होने से बहुत सी बातें सीखने को मिली, जिस कारण आगे बढ़ने का ज्ञान जन्मा। इसी से मैं मजबूत हुआ वह प्रेरित होता रहा तभी मैं आगे बढ़ पाया। मेरी बैचेनी, मेरी निराशा ने सदैव कुछ समय बाद मुझे आगे बढ़ने हेतु धक्का दिया। उन्हीं की बदोलत संघर्ष की प्रेरणा मिली व मार्ग खोजा। तभी तो स्वेट मार्डन ने लिखा है कि जो बैठे रहते है उनका भाग्य भी बैठे रहता है। जो प्रयत्न करते है उनका भाग्य भी साथ देता है। जिसने मरना सिख लिया है जीने का अधिकार उसी को। जो डर गया वो मर गया। हार से ही जीत का मार्ग प्रशस्त होता है। ऐसे में आलसी व्यक्ति पलायन करने की सोचता है। लेकिन इनसे बचा नहीं जा सकता। संघर्ष से बचना आत्महत्या है। स्वयं को कमजोर ही बनाए रखना है। कमजोरी किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। कमजोरी किसी भी समस्या का नहीं। पीछे हटने में समाधान नहीं है।  ❤❤❤❤